ना टीवी थी ना फेसबकु फिर भी पूरे देश में फैलाया संदेश

उपदेश अवस्थी। बात सन् 1857 की है। उन दिनों देश में ना तो टीवी होते थे और ना ही फेसबुक। रेडियो भी नहीं होते थे, फिर भी एक क्रांतिकारी ने पूरे देश में एक संदेश फैलाया। अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का संदेश। सोचिए, कैसे संभव हुआ होगा उस समय। वो लोग जो दुनिया में कुछ अलग करना चाहते हैं, कुछ ऐसा करना चाहते हैं जिसे जमाना याद रखे, उनके लिए यह कहानी सबसे ​बड़ी प्रेरणा हो सकती है।

शहीद रामचंद्र राव जिसे लोग तात्याटोपे के नाम से भी जानते थे। मैं उनके शौर्य की कथाएं और अंग्रेजों से लड़ाई की कहानी सुनाने नहीं आया, लेकिन ये बताने आया हूं कि जब जिंदगी में अंधेरा छा जाता है, पराजय आपकी किस्मत बन जाए, ऐसे हालात में भी लड़ा जा सकता है। एक नया रास्ता बनाया जा सकता है।

रामचंद्र राव जाति से ब्राह्मण थे। युद्ध लड़ना उनका काम नहीं था। उस जमाने में युद्ध लड़ना क्षत्रियों का काम हुआ करता था, लेकिन जब उनके राजा के अस्तित्व पर बन आई तो रामचंद्र राव ने हथियार उठाए। उनका राजा हार गया, यहां तक कि जिस रानी लक्ष्मीबाई को पूरा देश याद करता है उन्होंने भी अंग्रेजों के सामने घुटने टेक दिए, लेकिन वो लड़ते रहे। जिंदगी की अंतिम सांस तक।

लड़ाई का फैसला कर लेने के बाद सबसे बड़ा संकट ये था कि अंग्रेजों की इतनी बड़ी सेना से कैसे लड़ा जाए। तब उन्होंने गोरिल्ला युद्ध की रणनीति बनाई। अंग्रेजी सेनाओं पर अचानक हमला करते और मारकाट मचाकर जंगल में गायब हो जाते।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हजारों अंग्रेजी सेनिकों को मारने वाले तात्याटोपे का चेहरा किसी ने नहीं देखा था। अंग्रेजों के पास उनकी पहचान का कोई निशान तक नहीं था। वो खुलेआम घूमते, सर्वे करते और फिर हमला करते।

उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ तमाम राजाओं और हिन्दुओं की सेना गठित करने  का निर्णय लिया। तय किया कि यदि एक ही दिन एक साथ पूरे देश में अंग्रेजों पर हमला कर दिया जाए तो अंग्रेजी सेना एक साथ मारी जा सकती है। समस्या यह थी कि यह संदेश एक साथ पूरे देश में कैसे पहुंचाया जाए। तात्याटोपे ने इसका भी हल निकाला और ऐसी योजना बनाई जिससे पूरे देश में क्रांति का संदेश फैल गया। इतिहास में इसे कमल और रोटी के नाम से जाना जाता है। भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनाव चिन्ह भी इसी की प्रेरणा से लिया है। इसका अर्थ है विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए संगठन को तैयार करना। 

अंग्रेजी सेना की सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे। 

अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया वापस आईं डंडियों से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना में शामिल कुल कितने सैनिक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को तैयार है और अंग्रेजों के बफादार सैनिकों की संख्या क्या। छापामारी की योजना आसानी से बन जाती और अंग्रेजी सेना में शामिल क्रांतिकारियों की मदद से तात्याटोपे अंग्रेज अफसरों की मार दिया करते थे। 

दूसरा प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’
तात्याटोपे चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार तक पहंचाते। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि क्रांतिकारियों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।

तात्याटोपे अकेले ऐसे यौद्धा थे जिन्हे मराठा और मुगल दोनों राजाओं का साथ मिला। जबकि ये दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हुआ करते थे। 

लव्वोलुआब यह कि उम्मीद की किरण हर हाल में होती है। बस देखने की नजर होना चाहिए। यदि तात्याटोपे की योजना को मानते हुए सभी राजा संगठित हो गए होते तो यह देश 1857 में ही आजाद हो गया होता। सारे के सारे अंग्रेज मार दिए गए होते। यह देश ऐसे देशभक्त वीर योजनाकार को उस शिद्दत से याद नहीं करता जिसके योग्य वो हैं, परंतु भविष्य यह जरूर स्वीकारेगा कि रामचंद्र राव जैसा योजनाकार इस देश की एकता के लिए ना केवल उपयोगी है बल्कि अनिवार्य भी।

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