राकेश दुबे@प्रतिदिन। संसद की वित्तीय समिति ने जीडीपी के नए आंकड़ों की प्रामाणिकता पर गंभीर सवाल उठाए हैं। समिति ने कहा है कि जिस तरह से ये आंकड़े इकॉनमी के विभिन्न सेक्टरों की वृद्धि दर में अचानक तेजी दिखा रहे हैं, उससे आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। इससे पहले सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन भी ऐसा संदेह जता चुके हैं।
दरअसल, सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस (सांख्यिकी मंत्रालय) ने पिछले फरवरी महीने में साल २०११- १२ को आधार वर्ष मानते हुए नई पद्धति से जीडीपी के आंकड़े जारी किए थे। इससे पहले २००४-०५ को आधार वर्ष मानते हुए पुरानी पद्धति से जो आंकड़े जारी हुए थे, वे जीडीपी ग्रोथ को २०१२-१३ में ५.१ प्रतिशत और २०१३-१४ में ४.७ प्रतिशत बता रहे थे। मगर नई पद्धति के मुताबिक जारी आंकड़ों में ग्रोथ २०१३-१४ के लिए ६.९ प्रतिशत और २०१४ -१५ के लिए ७.४ प्रतिशत बताई गई |
समय-समय पर आधार वर्ष बदलने का चलन अंतरराष्ट्रीय तौर पर मान्य है। इसके जरिये चलन में आई नई चीजों को जीडीपी में जगह दी जाती है। लेकिन अपने यहां सीएसओ ने इस बार आंकड़ों के साथ जो करिश्मा किया है, उससे जीडीपी ग्रोथ तो आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ गई, लेकिन बाकी चीजों का इसके साथ कोई मेल ही नहीं बन पा रहा है। जैसे, साल २०१४ -१५ में मैन्युफैक्चरिंग में ६.८ प्रतिशत वृद्धि दिखाई जा रही है, मगर फैक्ट्री आउटपुट डेटा के मुताबिक यह बढ़ोतरी महज २-३ प्रतिशत बैठ रही है। ऐसे ही जीडीपी के ये बढ़े हुए आंकड़े सरकार की आमदनी बढ़ाने में कोई मदद नहीं कर रहे।
साफ है कि आंकड़ों की यह बाजीगरी सरकार को जितनी सहूलियत नहीं दे रही, उससे ज्यादा सिर दर्द पैदा कर रही है। बेशक, यह जरूरी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया की राय बदली जाए। निवेशक हमें उम्मीद भरी नजरों से देखें और यहां अपना पैसा लगाएं, इसमें हम सब का फायदा है। लेकिन, इसके लिए हमारी नौकरशाही का कोई हिस्सा अगर ऐसे शॉर्ट कट अपनाने लग जाए जो हमें दुनिया की नजरों में संदिग्ध और हास्यास्पद बनाता हो, तो इसकी कतई इजाजत नहीं दी जा सकती। जरूरी है कि सरकार को समय रहते हस्तक्षेप करके इन गड़बड़ियों को दुरुस्त करना चाहिए|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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