अर्थशास्त्र, भारतीय अक्ल और अनुदान की भीख

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारतीय किसी से सीखना नहीं चाहते पडौसी देश बंगलादेश के मोहम्मद युनूस नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित ‘ग्रामीण बैंक’ को नोबेल पुरुस्कार मिला है | उन्होंने माइक्रो फाइनैंसिंग के जरिये अपने   देश के अशिक्षितों, गरीबों, महिलाओं को जोड़ा । यह कितना शर्मनाक है कि छोटे से पड़ोसी देश के राजनेताओं को यह फंडा समझ में आ गया लेकिन हम  किसी NRI का इन्जार कर रहे हैं | दुनिया के इस सबसे बड़े जूट निर्यातक देश ने भारत जैसों को भी बंगला देश  ने पस्त कर दिया। बांग्लादेश ने  दुनियाभर को भारत के दो लाख टन के बदले 10 लाख टन जूट 35 प्रतिशत  कम कीमत पर बेचने में भी सफल है। देश में सब्सिडी और बड़े लोन के बदले  मझोले किसानों और गरीब उद्यमियों को आसान तरीकों से चुकाए जाने वाले लोन वास्तविक जरूरतमंदों को दिए जाएं।

दुनिया के हर विकसित देश सब्सिडी और लोकलुभावन वादों से बच रहे हैं जबकि भारत में दो दशक पूर्व आया मु‌फ्तखोरी का यह रोग अब महामारी बन चुका है। वे यह क्यों नहीं जान रहे कि सब्सिडी से गरीबी का दुष्चक्र ही बढ़ता है। इस बैसाखी से लोग पंगु बनते हैं, आत्मनिर्भर नहीं। यह खैरात अर्थव्यवस्था को चौपट कर रही है जबकि आय का माध्यम पेश करने वाली प्रत्यक्ष योजना को कर्ज देने से देश को अंतत: लाभ ही मिलता है। सब्सिडी को लेकर अर्थशास्त्रियों, नेताओं और कॉर्पोरेट खेमों की अलग-अलग राय है। उदारीकरण के पक्षधर इसे हटाने, कॉर्पोरेट इसे तर्कपूर्ण बनाने और नेतागण इसे बढ़ाने को कहते हैं लेकिन सभी इस अकाट्य सत्य से भी वाकिफ हैं कि राजस्व की वसूली ही अर्थव्यवस्था की सफलता का सबसे विश्वसनीय मापदंड होती है। सही वसूली के लिए व्यवस्था और स्थिरता बनाए रखने की जरूरत होती है ताकि अर्थव्यवस्था में विस्तार की स्थितियां बनी रहें क्योंकि अर्थव्यवस्था जितनी बढ़ेगी, उतना ही राजस्व जमा होगा। ऐसे में सब्सिडी नामक रोड़े पर से कूदना ही सारी करतब है और अक्सर सरकारें और देशहित इसमें औंधे मुंह गिर रहे हैं।

विकासशील अर्थव्यवस्था वाला हमारा अंदरूनी स्वरूप इस वजह से खोखला होता जा रहा है। कालाधन लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रु. पहुंचाने और पेट्रोल-डॉलर की कीमत 40 रु. तक लाने की बात करने वालों ने आसमान के तारे तोड़ लाने की बातें तो हुईं, लेकिन अब जिस तरह उन वादों को ‘चुनावी जुमला’ कहकर अट्टाहास किया जा रहा है, वही भारतीय मतदाताओं की नियति है। कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है। 

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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