दिलीप कुमार सांखला | भोपाल समाचार डाॅट काम दि. 13 फरवरी में कथित राजेश मिश्रा शिक्षक का पत्र छपा था जिसे मुझे एल.एन. पाटीदार ने व्हाट्सएप पर भेजा। इस पत्र में अध्यापक बनाम शिक्षक की तुलना की गई है। वास्तव में पुराने शिक्षकों को शिक्षक और 1998 और उसके बाद नियुक्ति शिक्षकों को पृथक पद नाम दिया गया और इस तरह दो वर्ग बन गए।
इस पत्र में पुराने शिक्षकों को गधे कहा गया और कहा गया कि जब 151 रूपये वेतन मिलता था तब भी ये कोई हड़ताल नहीं कर पाए। इन्हें फूल्स फाॅर रूल्स कहा जाता है क्योंकि ये शासन के नियमों को मानना अपना कर्तव्य मानते हैं। राजेश मिश्रा के अनुसार वर्तमान में नियुक्त अध्यापक अराजक है।
लेखक को यह नहीं मालूम की तत्कालीन समय में वेतन की दर सोने के मूल्य के समकक्ष होती थी, उसे यह भी नहीं मालूम की शिक्षक के पद की कोई गरिमा और मर्यादा भी होती है। उस समय विद्यालय सीमित थे इसलिए पदोन्नति के अवसर भी कम थे जिस पद पर नियुक्त हुए और उसी पद पर सेवा निवृत्त होने के पीछे उनका अपने पद के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण था यह उनके प्रोफेशनल होने के कारण हुआ।
राजेश मिश्रा जिन गुणों की अपेक्षा कर रहे हैं यह अध्यापको में नौकर की मानसिकता की प्रशंसा कर रहे है। जो व्यक्ति प्रोफेशनल और सर्वेन्ट में भेद को नहीं समझता हो उसे शिक्षक के बारे में टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है।
अध्यापक और शिक्षक में व्यावसायिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री दिग्विजयसिंह ने इस संवर्ग को पैदा किया और अब इस भ्रूण ने गुरूजी, शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक से होता हुआ अध्यापक का रूप ग्रहण किया है।
जब-जब इन अध्यापकों ने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई तब-तब मध्यप्रदेश शासन ने इनके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करनी पड़ी।
राजेश मिश्रा को यह समझना चाहिए कि 1960 में सहायक शिक्षक (तत्कालीन निम्न श्रेणी शिक्षक) का निम्न श्रेणी लिपिक के समान वेतनमान था। मप्र शिक्षक संघ की पहल यह कि शिक्षक की तुलना शिक्षकों से ही होनी चाहिए, केन्द्र के शिक्षकों का वेतनमान की मांग के परिणाम स्वरूप चौधरी वेतन आयोग में प्रधानाध्यापक प्रावि और मा.वि. के पद स्वीकृत हुए और शिक्षकों को पृथक वेतनमान मिला। फिर चौथे वेतन आयोग से केन्द्र के समान वेतनमान मिला और वरिष्ठ वेतनमान/क्रमोन्नति योजना भी प्राप्त की। नए पदों के सृजन के साथ पदोन्नतियों के नियम बने लेकिन इन सब के लिए शिक्षकों ने अपने पद की गरिमा के अनुसार आन्दोलन किए।
हड़ताल करने वाले अराजक तत्वों को राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं दिए जाते है पुरस्कार पद की गरिमा और मर्यादा से नवाचार करने वाले शिक्षक पाते है।
जहां तक इन अध्यापकों की राजनीतिक पहुंच का प्रश्न है, अध्यापकों को इतना कम वेतन मिल रहा था कि शासन स्वयं उन्हें देना चाहते है लेकिन प्रतिपक्षी दलों ने इनके बीच घुसपैठ करते देख सत्तारूढ़ दल ने भी अपने लोगों की घुसपैठ करवाकर इनकी मांगों को गति प्रदान की लेकिन इनके अंदर छिपी हुई महत्वकांक्षा ने अनेक अध्यापक संघ खड़े कर दिए। परिणामस्वरूप इनको संयुकत मोर्चे बनाना पड़ा। म.प्र. शिक्षक संघ भी अपने हर आन्दोलन में इनको अपना अंग-अंग मानकर इनको शिक्षा विभाग में मर्ज करने की मांग करता आया है लेकिन यश की लड़ाई में इन्होंने म.प्र.शिक्षक संघ से दूरी बना रखी है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि म.प्र. शिक्षक संघ ने रजत जयंती के अवसर पर सतना सम्मेलन में इस कर्मी कल्चर का विरोध किया था, जिसे श्री कैलाश जोशी पूर्व मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया था जिस पर वर्तमान सत्ता रूढ़ दल अक्षरशः चल रहा है।
म.प्र. शिक्षक संघ पदनाम, नियोक्ता और सेवाशर्तो के आधार पर भेद नहीं करता है उसके लिए हर पढ़ाने वाला ’शिक्षक’ है। पदनाम के आधार पर कोई भेदभाव न हो यह उसका आदर्श है इसलिए किसी भी दृष्टि से शिक्षक समाज में फूट डालना एक जघन्य अपराध है इसके कारण होने वाली क्षति पूरे समाज और राष्ट्र को भुगतना पड़ेगी। इसलिए किसी को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए।
अतः मैं सभी शिक्षकों और अध्यापकों से आव्हान करता हूं कि वे अपनी महत्वकांक्षा आदि को त्याग कर एक प्रोफेशनल की तरह अपने पद की गरिमा बनाए रखें। जब गुरू श्रेष्ठ होता है तो शिष्य उसके लिए आकाश से तारे भी तोड़ कर ला सकते है जैसे द्रोणाचार्य के लिए अर्जुन ने युद्ध कर राज्य जीता और गुरू को समर्पित कर दिया। भारतीय चिंतन में पाश्चात्य सोच का मिश्रण कर अपना धर्म संस्कृति और संस्कारों को तिल्लाजंली देने के बजाए श्रेष्ठ भावी नागरिकों को तैयार करें।
- लेखक श्री दिलीप कुमार सांखला म.प्र. शिक्षक संघ के प्रांतीय सचिव हैं।
