राकेश दुबे@प्रतिदिन। और प्रधानमंत्री ने ईसाई समुदाय के कार्यक्रम में उस विषय कि नब्ज़ को छू दिया है, जिससे बहुत से विषय जुड़े है लेकिन मूल समान नागरिक संहिता है| समान नागरिक संहिता का सवाल फिर चर्चा में है। हाल में उच्चतम न्यायालय ने इसकी जरूरत बताते हुए तल्ख टिप्पणी की है कि जिस तरह धर्म का प्रभाव सामाजिक मुद्दों पर बढ़ रहा है, पता नहीं कब तक यह देश पंथनिरपेक्ष रह पाएगा। न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन ने यह टिप्पणी एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान की। यह टिप्पणी उस समय आई है, जब राजनीति में भी इसे लेकर थोड़ी गरमी दिख रही है|
यह सही है कि समान नागरिक संहिता न होने के कारण कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, परंतु उसे लागू करने के पहले सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल होना जरूरी है। संविधान सभा में जब यह मुद्दा आया था, तब सभी संप्रदायों के सदस्यों ने एक स्वर में कहा था कि इसे लागू करने का यह उचित समय नहीं है। इसीलिए नीति-निर्देशक तत्व बनाये गये। संविधान के लागू होने के बाद 1952 में हिंदू बिल संसद में पेश किया गया। इसका नाम तो हिंदू बिल था, किंतु इसमें समान नागरिक संहिता बनाने की बात थी, जिसमें मुसलमानों को भी शामिल किया गया था। इसका जोरदार विरोध हुआ, जिसके कारण विधेयक वापस ले लिया गया।
समान नागरिक संहिता बनाने का सवाल जितना कानूनी है, उससे कहीं ज्यादा यह राजनीतिक है। इसकी बाधाएं भी मूल रूप से राजनीतिक ही हैं। यह सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति का मामला नहीं है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा जटिल है। समान नागरिक संहिता लागू करने से पहले अल्पसंख्यकों के मन में बैठे डर को दूर करना होगा। ऐसे किसी बदलाव से पहले समाज के सभी वर्गों को उसके लिए तैयार करना होगा। भावनाएं आहत होने और पहचान खत्म होने की आशंका वाले इस दौर में यह काम काफी कठिन है,पर राष्ट्रहित में असम्भव नहीं है|
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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