बाप रे बाप तो ये है किरण बेदी की सच्चाई

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 नईदिल्ली। किरण बेदी को देश की पहली महिला आईपीएस होने का गौरव हासिल है, लेकिन किरण बेदी की पहचान इससे कहीं ज्यादा है। कहा जाता है कि किरण बेदी वो पुलिस अधिकारी हैं जिन्होंने पीएम इंदिरा गांधी की कार का चालान काट डाला था। इसके अलावा और भी कई बहादुरी के किस्से हैं किरण बेदी के, परंतु सीएम सीट की दावेदार घोषित होने के बाद हुए मीडिया ट्रायल में किरण बेदी की सारी पोल खुल गई और एक ऐसी सच्चाई सामने आई, जिसे पढ़ेंगे तो आप भी चौंक उठेंगे।

यह है गांधी की कार का असली किस्सा

यह तथ्य किरण बेदी की ही वेबसाइट से लिया गया है। दरअसल, 5 अगस्त 1982 को एक सफेद एम्बेसडर कार DHD-1817 कनॉट सर्कस (बाद में नाम पड़ा कनॉट प्लेस) के पास एक दुकान के बाहर खड़ी थी। तब ट्रैफिक पुलिस के सब-इंस्पेक्टर ने देखा कि कार नो-पार्किंग जोन में है और उसने चालान बना दिया लेकिन यह चालान कार ड्रायवर का नहीं बल्कि दुकान मालिक का बनाया गया था। इतना ही नहीं, बाद में इस चालान को तब वापस लेने से भी इनकार कर दिया गया, जब बताया गया कि कार पीएम के बेड़े की है। और तो और, उस समय प्रधानमंत्री और उनका परिवार भारत में ही नहीं था और ड्रायवर कार का कुछ सामान लेने अकेला ही कनॉट सर्कस गया था। किरण बेदी तो उस समय घटना के आसपास भी मौजूद नहीं थीं लेकिन जैसे ही उन्हें इस घटना का पता चला, खुद को लाइमलाइट में लाने की जुगत में बेदी ने इसका पूरा श्रेय ले लिया। उस बहादुर सब-इंस्पेक्टर का तो जिक्र तक नहीं किया गया, जिसने चालान काटा था।

कोई कार्रवाई नहीं की इंदिरा गांधी ने
एक और तथ्य, इंदिरा जब वापस भारत आईं तो उन्होंने इस बात की जांच के आदेश दिए कि वीआईपी सिक्योरिटी और दिल्ली पुलिस में कम्युनिकेशन गैप कैसे हुआ। यहां तक कि उस पुलिस सब इंस्पेक्टर के खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं की गई जिसने कार पुल की थी और चालान काटा था।

अब पढ़िए किरण बेदी के गोवा ट्रांसफर की सच्चाई
कहते हैं कि इंदिरा गांधी की कार पुल करने के कारण किरण बेदी का ट्रांसफर दिल्ली से गोआ कर दिया गया। खुद किरण बेदी भी यही कहतीं हैं परंतु सच्चाई यह है- बेदी ने यह नहीं बताया कि उन्हें दिल्ली में तैनाती सिर्फ एशियन गेम्स (नवंबर-दिसंबर 1982) के दौरान ट्रैफिक संभालने के लिए मिली थी। उन्हें कनॉट प्लेस की घटना के पूरे सात महीने बाद मार्च 1983 में गोवा भेजा गया। वो भी इसलिए, क्योंकि वह गोवा में होने जा रही चोगम समिट की व्यवस्थाओं के लिए सबसे उपयुक्त अधिकारी मानी गई थीं। बेदी को इंदिरा के शासन काल में एशियन गेम्स और चोगम समिट के बेहतर प्रबंधन के लिए पुरस्कृत किया गया था। बावजूद इसके किरण बेदी ने इसे इंदिरा का अत्याचार करार देकर लोकप्रियता के लिए भुनाने का प्रयास किया। ऐसा तब किया गया जब इंदिरा गांधी इस दुनिया में नहीं थीं।

इंदिरा की गुडबुक में रहतीं थीं किरण बेदी
जब तक इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं, जीवित थीं तब तक किरण बेदी लगातार इंदिरा गांधी की गुडबुक में बने रहने की कोशिश किया करतीं थीं। देश की पहली महिला आईपीएस होने के नाते इंदिरा गांधी भी उन्हें तवज्जो दिया करतीं थीं। वे उन्हें चर्चा करने बुलाती थीं। उस वक्त इंदिरा के साथ नाश्ता करते उनकी तस्वीरें भी छपती थीं। अस्सी के दशक में ही किरण बेदी उस समय परेशानी में फंस गई थीं जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के दौरान जस्टिस वाधवा समिति की जांच में किरण बेदी को तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों पर लाठीचार्ज कराने का आरोपी पाया गया। उस दौरान वकीलों और नेताओं द्वारा किरण बेदी को सस्पेंड करने का दबाव बनाया गया लेकिन कांग्रेसी सरकार के गृहमंत्री बूटा सिंह ने किरण बेदी बचा लिया था।

भाजपा ने खोली थी बेदी की कलई
1995 में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने किरण बेदी पर दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैद चार्ल्स शोभराज को वीआईपी ट्रीटमेंट देने का आरोप लगाया। बेदी उस समय जेल सुपरिटेंडेंट थीं और उन्होंने शोभराज को टाइपराइटर से लेकर और भी कई चीजें इस्तेमाल करने की आजादी दे रखी थी।
इसके बाद तीस हजारी कोर्ट के वकील और दूसरी राजनीतिक पार्टियों तथा भाजपा के मदनलाल खुराना किरण बेदी के खिलाफ हो गए थे और सभी ने उनके सस्पेंशन की मांग कर डाली।

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