राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश में और बातों के लिए भले ही अच्छे दिन आ चुके हों लेकिन कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए यह समय खासा बुरा है। हाल ही में तमिल उपन्यास मातोरुबागन (अंग्रेजी अनुवाद 'वन पार्ट वुमन') के लेखक पेरुमल मुरुगन को राजनीतिक दबावों में आकर अपने ही लेखक के मर जाने की घोषणा करनी पड़ गई। इस उपन्यास की मूल कथा और लेखक का उद्देश्य वह कतई नहीं है जो उनका विरोध करने वाली शक्तियों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है। उन्हें एक जाति विशेष का विरोधी, धर्म विरोधी और स्त्री विरोधी बताकर अपनी ही किताब को खारिज करने के लिए मजबूर किया गया।
उपन्यास के कथ्य पर आपत्ति करने वाले शायद यह न जानते हों कि उनकी इस आपत्ति की पहुंच 'महाभारत' और अनेक प्राचीन ग्रंथों तक भी हो सकती है जहां नियोग प्रथा को बाकायदा स्वीकृति मिली हुई थी। हैरानी की बात है कि मुरुगन इस बारे में अपनी ओर से कोई वैल्यू जजमेंट भी करते नजर नहीं आते। फिर उनका विरोध इतने समय बाद और इस हद तक क्यों? क्या धार्मिक और सांप्रदायिक संकीर्णता अब हमारे राष्ट्रीय विवेक के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं छोड़ेगी?
सरकार को अपनी मर्जी का सेंसर बोर्ड चुनने का अधिकार है। सत्तारूढ़ पार्टियां किसी भी रचना से अपनी सहमति या असहमति जता सकती हैं। लेकिन इन दोनों का संयुक्त प्रभाव अगर यह देखने को मिलता है कि देश की सभी कलात्मक अभिव्यक्तियां एक सत्तापोषित भीड़ की मर्जी से संचालित हों तो देश के लिए यह कोई अच्छा संकेत नहीं होगा। सारे लोग पहलाज निहलानी नहीं हो सकते जो सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष होते अपने को सार्वजनिक रूप से मोदी समर्थक और भाजपा समर्थक कहने में गौरव महसूस करते हो | अच्छे दिन, कलाकारों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के रूप में महसूस होना चाहिए |
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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