शेर जवाब नहीं देता, बस हल्ला करता है

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दिनेशराय द्विवेदी। 'द ग्रेट इंडियन डेमॉक्रैटिक सर्कस’ के इस पंचवर्षीय प्रदर्शन की तस्वीर कुछ-कुछ साफ होने लगी है। पता लगने लगा है कि कौन-कौन टीमें किन रिंगों में किन कलाकारों को प्रदर्शन के लिए ला रही हैं। शेरखान ने दो साल पहले ही तय कर लिया था कि इस बार कैसे भी उसे सर्कस का प्रबंधन हासिल करना है।
इंडियन सर्कस में जाति का बड़ा महात्म्य है। उसने इस महानता का महीनता के साथ अध्ययन किया और पाया कि यहां पंचायतें फैसला करती हैं, जिनमें मत कम और हल्ला करने की कला अधिक काम आती है। उसने हल्ला-कला के नैसर्गिक कलाकारों को चुन-चुन कर एकत्र करना आरंभ कर दिया। पुराने जमाने में इन कलाकारों का बड़ा मान हुआ करता था। लेकिन जैसे ही सर्कस को डेमॉक्रैटिक घोषित किया गया, कला विश्वविद्यालय खुले। विश्वविद्यालयों ने इस कला को निहायत घटिया और कलाहीन कारीगरी करार दे कर निषिद्ध कर दिया। जब किसी व्यवहार को जमीन के ऊपर निषिद्ध कर दिया जाता है तो वह दीमक की तरह जमीन के अंदर-अंदर पनपने लगता है और उसे खोखला बना देता है। जैसे ही उसे मौका मिलता है वह घरों में घुस जाता है।

शेरखान के इन हल्लाकरों ने बड़ा काम किया। उन्होंने खूब हल्ला किया कि केवल और केवल शेरखान ही है जो उनकी टीम को बरसों की जहालत से निजात दिला सकता है और सर्कस के प्रबंधन को हासिल कर सकता है। यह कोई आसान टास्क नहीं था। टीम में बहुत विरोध हुआ। तर्क रखा गया कि हल्ला कलाकारों से निकटता के कारण उसे सर्कस के दर्शक स्वीकार न करेंगे। लेकिन यह विरोध हल्लाकरों के सामने टिक न सका। शेरखान को उसी तरह टीम का कर्ता-धर्ता कहा जाने लगा जैसे मेडिकल कॉलेज में प्रवेश करते ही हर विद्यार्थी को डॉक्टर कहा जाने लगता है। 

एक बार जब उसने टीम पर पार पा ली तो अपने सभी हल्लाकरों को सर्कस के दर्शकों के बीच घुस कर काम करने को कहा। पांच साला प्रदर्शन के साल भर रहते ही वे दर्शकों में घोषणा करने लगे कि सर्कस के कलाकारों में केवल शेरखान है जो सर्कस का प्रबंधन ठीक से चला सकता है। कई लोग शंका करते, पूछते कि वह प्रबंधन को किस तरह चलाएगा? बस उस के कलाकार एक स्वर में तोतों की तरह हल्ला करने लगते, “चलाएगा चलाएगा चलाएगा...” प्रश्न करने वालों की घिग्गी बंध जाती, वे प्रश्न करना ही भूल जाते। इस तरह शेरखान ने पंचवर्षीय प्रदर्शन आरंभ करने के बहुत पहले ही अच्छी खासी ध्वजा बांध दी।

अब तो मैदान था और शेरखान था। कोई प्रतिस्पर्थी नहीं था। ऐसा लगने भी लगा कि इस बार तो शेरखान ही बाजी मार लेगा। पर अब तो प्रदर्शन की वेला आ गई है। यहां प्रबंधन का निर्णय इस बात से होना है कि प्रदर्शन में विजयी हुए कलाकारों की बहुसंख्या किसे प्रबंधक बनाना चाहती है। प्रदर्शन के लिए सर्कस के सभी कलाकार तैयार हैं, उनकी टीमें तैयार हैं। बैल टीम, शेरखान टीम और झाड़ू टीम के अलावा भी बहुत सी टीमें अपनी अपनी कला के प्रदर्शन के लिए तैयार खड़ी हैं। सभी रिंगों में चहल पहल हो गई है। दर्शकगण भी उत्साहित हैं। कलाकार उठापटक करने लगे हैं। सर्कस के नॉर्दन रिंग में सब से अधिक उठापटक है। सब से ज्यादा कलाकार वहीं से चुने जाने हैं इसी कारण यह रिंग सर्कस की सब से महत्वपूर्ण रिंग मानी जाती है। हर टीम यहां आजमाइश करना चाहती है और अपने अधिक से अधिक कलाकारों को यहां से चुनता हुआ देखना चाहती है। एक वक्त था जब यहां बैल टीम की तूती बजा करती थी। भावी प्रबंधक इसी रिंग से विजयी कलाकार होता था। फिर एक प्रबंधक का कला प्रदर्शन में हेराफेरी करना सिद्ध हो गया। अगले प्रदर्शन में शेष सारी टीमें एक हो गईं। दर्शकों ने उसे और उस की टीम के ज्यादातर कलाकारों को नकार दिया। पहली बार पिंजरे वाली रिंग का कलाकार सर्कस का प्रबंधक चुना गया। हालांकि वह पूरे पांच बरस तक अपने समर्थक कलाकारों को इकट्ठा नहीं रख सका। बीच में ही उस का प्रबंधन छिन गया।

शेरखान की टीम भी उस प्रबंधक की टीम में शामिल थी लेकिन उस ने अपना भूगर्भीय अस्तित्व बनाए रखा। पर बनावट के उसूलों से सचाई कभी नहीं छुपती। जैसे ही यह बात उजागर हुई बाकी कलाकार उन से रुष्ट हो गए। उस टीम को अलग होना पड़ा। तब वही टीम एक नए नाम के साथ सामने आई। इस टीम ने सर्कस का प्रबंधन हासिल करने की बहुत कोशिशें कीं। लेकिन उस के कलाकार कभी भी पर्याप्त संख्या में नहीं चुने जा सके। इस बीच सर्कस में कलाकारों की छोटी बड़ी बीसियों नई टीमें अस्तित्व में आ गईं। नॉर्दन रिंग में हाथी और साइकिल टीमों ने अपना अच्छा प्रभाव जमाया। एक एक बार दोनों टीमों ने इस रिंग में अपना एकल वर्चस्व भी स्थापित कर दिखाया, वे अब फिर से मैदान में हैं। शेरखान भी अपनी टीम के अधिक से अधिक कलाकार नॉर्दन रिंग से चुनवाना चाहता है। इसी कारण तो उस ने गंगाघाट स्टूल पर अपना प्रदर्शन करने की ठानी है। उस की योजना है कि इस रिंग में हल्ला बना रहे जिस से टीम के दूसरे कलाकारों में हिम्मत बनी रहे। वे अच्छा प्रदर्शन कर सकें और अधिक संख्या में चुने जा सकें। दूसरे, हल्ला होते रहने से विरोधी कलाकार हतोत्साहित होते रहें।

शेरखान की योजना तो अच्छी थी। पर जैसे ही उस ने गंगाघाट स्टूल पर प्रदर्शन की घोषणा की, प्रत्युत्तर में झाड़ू मुखिया भी वहां चुनौती देने पहुंच गया। शेरखान की प्रमुख शक्ति उस के हल्लाकर हैं, वहीं झाड़ू मुखिया भी कम नहीं, वह हल्ला कला का सिरमौर है। शेरखान के पास जहां नैसर्गिक हल्लाकरों की टीम है, तो झाड़ू मुखिया इस कला का चरम है और दनादन हल्ला कलाकार पैदा कर सकता है। जब मुकाबला शुरू होता है तो झाड़ू मुखिया अकेला सा लगता है, पर जैसे ही ये दनादन पैदा हुए हल्लाकर अपनी कला दिखाने लगते हैं, नैसर्गिक कलाकारों की हिम्मत पस्त होने लगती है। सभी खास खास टीमें चाहती हैं कि गंगाघाट स्टूल पर उन की टीम के कलाकार को सफलता हासिल हो या न हो, पर शेरखान सफल नहीं होना चाहिए। हर टीम चाहती है कि इस स्टूल पर उन का कलाकार भी अपना प्रदर्शन करे। पर अभी तक शेरखान के मुकाबले झाड़ू मुखिया के अलावा कोई भी टीम अपने कलाकार का चयन तक नहीं कर पायी है। इस से झाड़ू टीम को पहल मिल गई है।

जहां झाड़ू मुखिया ने गंगाघाट पर ताल ठोक कर अपनी टीम को असमञ्जस से मुक्त कर दिया है, वहीं नामी गिरामी टीमें अभी यही कहती फिर रही हैं कि वे भी इस स्टूल पर अपना मजबूत कलाकार उतारेंगे। इन टीमों में बड़ा असमञ्जस है। वे सोच रही हैं कि क्यों न इन दोनों को ही यहां जोर आजमाइश करने दिया जाए लेकिन उन का मैं बार-बार यह भी चीखता है कि यदि उन्होंने इस स्टूल पर अपना कलाकार न उतारा तो एक तो उन की टीम की कमजोरी दिखेगी, दूसरे झाड़ू मुखिया को अनावश्यक महत्व मिल जाएगा। ये नामी गिरामी टीमें असमञ्जस से समञ्जस तक पहुंचें, तब तक हम सर्कस की दूसरी रिंगों का जायजा लेते हैं।

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