तीन रुपों में दर्शन देती मां हरसिद्धि

रहली के नजदीक रानगिर में विराजी मां हरसिद्ध के दरबार में आने वाले सभी भक्तों की मनोकामना क्षण भर में पूरी होती है यहां पर मां हरसिद्धि तीन रुपों में दर्शन देती है सुबहा कन्या के रुप में दोपहर युवा और रात्रि में बृद्ध रुप में मां के दर्शन होते है। पेश है एक रिर्पोट

नवरात्र की नवमी देवी मां सिद्धिदात्री ही हरसिद्धि है जिनके चरणों में आकर भक्तो की सभी मनोकामना परी होती है विंध्याचल पर्वत श्रंखला की गोद में कल कल करती देहार नदी के तट पर मां हरसिद्धि देवी का मंदिर बना है यहां स्थान रहली से 15 किमी दूरी पर है। 

यहां पहुचने के दो मार्ग है सागर से रहली रोड पर और सागर से गौरझामर रोड से जाया जा सकता है रानगिर में विराजी मां हरसिद्धि की महिमा अपरंमपार है। श्रृद्धालु उनके दर्शन तीन पहरों में तीन रुपों में करते है सूर्य की प्रथम रश्मियों और लालिमा के सुनहरे प्र्यावरण में माॅ की मुद्रा बाल सुलभ किशोरी के रुप में देख्ी जा सकती है दोपहर प्श्चयात युवा रुप में मा दर्शन देती है तथा सांध्य बेला में एक बृद्धा नारी के रुप मेंदृश्यमान होती है परिवर्तन शील माॅ की छवि में श्रृद्धालु अपनी समूची आस्था और श्रद्धा माॅ के चरणों में सर्मपित कर धन्य हो जाते है रानगिर के संबंध में यहां अनेक किंवदंतियां प्रचलित है प्रचलन के अनुसार जब दक्ष के हवन कुंड में माता सती ने स्वयं को समर्पित कर दिया था तो भगवान शिव रोद्र रुप में सती के शरीर को लेकर तांडव नृत्य करते घूम रहै थे तो भगवान बिश्णु ने अपने सुर्दशन चक्र से शव के टुकडे कर दिये थे वे टुकडे जहां जहां भी गिरे वही शक्ति पीठ बन गये रानगिर में माॅ के राने और दांत गिरने से गिरने से यहां शक्ति पीठ बन गया और इस सिद्ध पीठ का नाम रानगिर हो गया।

इसी मदिर के नजदीक गौरी दांत के नाम से प्रसिद्ध गौरीदांत नामक पर्वत है जो गौरीदांत नामक शक्ति पीठ बन गया।यहां पर सन 1939 के लगभग हर साल बलि प्रथा और हिंसक कर्मकांड प्रचलित थे जिसे श्रृद्धेय रामचंद्र जी शर्मा ‘‘वीर‘‘ ने आमरण अनशन कर बंद कराया था।इसे लंकापति रावण की तपोभूमी भी कहा जाता है जो वक्त के साथ अपभ्रंश होकर रावण गिरी हुआ और अब रानगिर के नाम से प्रचलित है यहां एक आख्यान और भी प्रचलित है कि वनवास के दौरान भगवान राम ने यहां विश्राम किया था समीप ही रामपुर ग्राम भी है जो आज भी अपने अस्तित्व में है।

इस कारण भी यह रामगिरी कहलाता था जो बाद में अपभ्रंश होकर रानगिर कहलाने लगा।कहते है यहां कभी वन्यजीवों की बहुलता थीअंग्रेज और विभिन्न समकालीन शासक यहां शिकार क्रीडा करने आते थे आयुर्वेदाचार्य केशरी आर्य ने अपनी कृति रानगिर का इतिहास में लिखा है कि कभी शेर दिल वाले शिकारीरानगिर शिकार करने आते थे।

इस मंदिर के बारे में कोई स्पस्ट शिलालेख तो नही है यह सिद्धपीठ तो अनादिकाल से है पर 1972 में सागर प्रदेश की माराठा शासको की शासन स्थली रहा है उसी समय मंदिर की संरचना कर जीर्णोद्धार कराया गया होगा।मंदिर में लघु मडिया पहले से थी बाद में उपर शिखर तथा दहलान बनवाई गई है। देहार नदी के उस पार बूढी रानगिर माता का मंदिर भी है जिसे मूल स्वरुप से जाना जाता है।
 
मां हरसिद्धि के दरबार में वैसे तो दोनों नवरात्रि पर मेला लगता हे पर बिशेश रुप से चैत्र की नवरात्रि पर यहां राम नवमी से पूर्णिमा तक विशाल मेले का आयोजन होता है रहली जनपद पंचायत द्वारा मेले का आयोजन किया जाता है।देश भर से आये श्रृद्धालुओं को संभालने के लिये पुलिस व्यवस्था भी मेला समिति को करनी पढती है। मेले में देश भर से श्रृद्धालु खाली हाथ आते है और झोली भरके ले जाते है। जिन लोंगों माॅ के आर्शीवाद से संतान प्राप्ति होती है वे अपने बच्चे का मुंडन कराने यहां अवश्य आते है।  अनेक जिलों से लोग पद यात्रा और सरें भरते हुये हुये यानि शरणागत होकर आते है मेले के समय परिवहन विभाग द्वारा रानगिर जाने के लिये बिशेश बसें चलाई जातीं है। भक्तों का मानना है कि यहां आने मात्र से हर कार्य सिद्ध हो  जाते है इसलिये मां का नाम  हरसिद्धि है।  

रहली से योगेश सोनी की रिपोर्ट 


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