उपदेश अवस्थी/लावारिस शहर। चुनाव आयोग की सख्ती के चलते रतनगढ़ में राहत और बचावकार्य शुरू करने से पहले चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ी और इसी के साथ यह बहस तेज हो गई है कि क्या हादसों में राहत से पहले भी चुनाव आयोग से पूछना होगा। ऐसी कैसी चुनावी निष्पक्षता जो निर्दोषों की जान ले ले।
बीते रोज दतिया में हुए रतनगढ़ हादसे में राजधानी की ओर से राहत और बचाव कार्यों में विलम्ब हुआ। इस विलम्ब के चलते मरने वालों की संख्या 89 से 115 हो गई। प्रशासनिक अफसरों का कहना है कि वो राहत के आदेश कुछ देर पहले दे सकते थे यदि आचार संहिता नहीं लगी होती परंतु आचार संहिता के कारण आयोग से अनुमति लेनी पड़ी और इसी के देरी हो गई।
इधर जयदीप गोविंद, मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी, मप्र ने कहा कि राहत व बचाव कार्यो में आयोग की तरफ से अनुमति देने में कहीं कोई देरी नहीं हुई। जैसे ही मुआवजा देने को लेकर शासन की ओर से प्रस्ताव आया, उसे केन्द्रीय मुख्य निर्वाचन आयोग को भेजा गया जहां से वह तत्काल ही मंजूरी के साथ वापस आ गया। चुनाव का समय है इसलिए प्रक्रिया पालन के लिए ऐहतियात बरतना जरूरी है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि इस सारी औपचारिकता की जरूरत भी क्या थी। अनुमति की सारी प्रक्रिया बटन दबाते ही तो पूरी हुई नहीं। अनुमति मांगी गई, उसे फारवर्ड किया गया, वहां से आदेश रिसीव हुए और फिर संबंधित को सूचित किया गया। सभी जानते हैं कि इसमें समय लगता है। कुछ घंटे इस बेकार की प्रक्रिया में बर्बाद कर दिए गए।
समझ नहीं आता, चुनाव आयोग इस बार किस तरह का नियंत्रण करना चाहता है। वहां लोग तड़प तड़प कर मर रहे थे और इधर आयोग को अचार संहिता की पड़ी थी। ऐसी कैसी आचार संहिता की प्रक्रिया जो निर्दोष नागरिकों की जान ले ले, नहीं चाहिए ऐसा आयोग जो मदद के लिए बढ़ते हाथों को पहले नियम समझाए। आयोग को अपनी नीतियों की एक बार फिर समीक्षा कर लेनी चाहिए, कहीं ऐसा ना हो कि आयोग की ऐसी सख्ती, अवाम को ही बागी बना दे।
