छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर से लगे गतौरी में एक ऐसा स्कूल है, जहां के शिक्षक पढ़ाने के साथ ही खेती भी करते हैं। खेती से होने वाली आय का हिसाब भी वे खुद करते हैं और बच्चों को जीने की कला भी सिखाते है, लेकिन शासन के भेदभाव के कारण अब इनकी हिम्मत जवाब दे रही है। 1939 में खुले इस स्कूल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि यह बापू का स्कूल है, जिसकी स्थापना उनके शिष्य और भू दान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे ने की थी।
स्कूल में कई खासियत है तो बदहाली की अपनी अलग कहानी भी है। यदि आपको यहां जन गण मन के साथ बापू का प्रिय भजन वैष्णव जन तो तेणे कहिए का स्वर सुनाई दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि बच्चे खेलना भूल सकते हैं लेकिन यह भजन गाना नहीं। बिलासपुर-रतनपुर मार्ग पर स्थित ग्राम गतौरी में गेंदराम साव से जमीन दान में लेकर विद्या मंदिर स्थापित किया गया था। तब मध्यप्रदेश का गठन भी नहीं हुआ था और पूरा इलाका सीपी एंड बरार के अंतर्गत आता था। तब से यह स्कूल शासकीय अनुदान से संचालित है।
स्कूल कई तरह की असुविधाओं से जूझ रहा है। शिक्षा विभाग इसे अपना स्कूल मानने से इनकार करते हुए भेदभाव करता है। वहीं ग्रामीण दान में दी गई जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। दान के समय स्कूल के पास 30 एकड़ जमीन थी, जो सिमट कर 22 एकड़ पर पहुंच गई है। कुछ जमीन पड़त है तो कुछ खेती योग्य। पर्याप्त दस्तावेज के अभाव में कुछ जमीन के बारे में स्कूल भी नहीं जानता। शासन ने स्कूल की जमीन पर सड़क तक बना दी। कोई कब्जा कर खेती करने लगा तो कुछ इस पर कब्जा कर बेचने की फिराक में है। कभी ये जन जागरण के केंद्र थे और बच्चों को जीवन जीने की कला के साथ ही चाक बनाने, पटसन की खेती करने और सूत कातना तक सिखाया जाता था।
शुरुआत में यहां आश्रम पद्धति भी लागू थी लेकिन शासन की उदासीनता और स्कूल के तत्कालीन संचालकों की अनदेखी के कारण ये बदहाल हो गए। खेती से होने वाली आय से स्कूल का मेंटनेंस और स्टेशनरी के साथ ही अन्य खर्च किए जाते हैं। शासन केवल अनुदान के रूप में शिक्षकों को वेतन देती है। सर्वशिक्षा अभियान देश के दूसरे स्कूलों के लिए लागू होगा लेकिन यहां इसकी कोई सुविधा नहीं मिली है। स्कूल में टायलेट तो है लेकिन स्वीपर की पोस्ट ही नहीं है, इसलिए सफाई की जिम्मेदारी शिक्षक व बच्चों पर ही है। स्कूल को मतदान केंद्र बनाया जाता है, लेकिन अन्य केंद्रों की तरह सुविधा नहीं दी जाती।
आदेश का उल्लंघन
विद्या मंदिर एक्ट 1939 की धारा 133/41 के तहत स्कूल की स्थापना की गई थी जिसमें इसे शासकीय स्कूल समझने की बात निहित थी। इसके बाद 30 नवंबर 1967 में एक आदेश हुआ कि विद्या मंदिर को भी प्राइमरी स्कूल की तरह माना जाए। शिक्षा विभाग इसमें अड़ंगा लगाता है कि आदेश में शासकीय शब्द का उपयोग नहीं किया गया लेकिन विभाग भूल जाता है कि तब शासकीय शब्द चलन में नहीं था क्योंकि प्राइवेट स्कूल नहीं होते थे।
काम न आया फरमान
स्कूल के प्रधानपाठक राजकुमार दुबे ने स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को दस्तावेज सौंपकर स्कूल की बदहाली दूर करने की मांग की तो उन्होंने बताया कि इस संबंध में पहले ही आदेश जारी कर दिया गया है। मजेदार बात ये है कि इस आदेश को कई माह बीत गए है लेकिन अभी तक स्कूल के लिए स्थाई पद स्वीकृत नहीं किया गया है।गिर सकता है छप्परराष्ट्रपिता का स्कूल कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन शासन इसकी लगातार अनदेखी कर रहा है। सरसेनी व बहेरामुड़ा के स्कूल तो कुछ हद तक ठीक है लेकिन यहां तो हालत ये है कि कभी भी छप्पर गिर जाएगा और उसके नीचे बैठकर पढऩे वाले 120 बच्चों के साथ बड़ी दुर्घटना हो जाएगी।
शिकायत की तो छीन लिया था बच्चों का निवाला
पिछले साल इसी स्कूल के बच्चों के निवाले पर राशन दुकान संचालक ने ऐसा डाका डाला था कि उन्हें मध्याह्न भोजन ही नसीब नहीं हो रहा था। स्व सहायता समूह की महिलाएं अपने घर से चावल लाकर बच्चों को खाना पकाकर खिलाती थीं। प्रधानपाठक राजकुमार दुबे ने इसकी शिकायत प्रशासन से की तो बच्चों को निवाला नसीब हुआ। प्रशासन ने इसकी जांच भी कराई थी।
