राकेश दुबे@प्रतिदिन। जब भी कोई हिंसक वारदात होती है, उसका एक ही रंग होता है होता है नफरत| बड़ी मुश्किल से उतरता है यह रंग| इतिहास गवाह है, यह रंग इतना पक्का होता है की दो-तीन पीढ़ी लग जाती है, धोते-धोते फिर भी यह रंग नहीं उतरता|
बड़ी मुश्किल है इस देश में, अपने को सर्वग्य मान बैठे कुछ राजनीतिग्य बिना किसी आधार को इस रंग को केशरिया या हरा बना देते है| यही से ये रंग पक्के होते हैं और कई पीढियों तक कायम रहेंगे, इसमें कोई शक नहीं है|
ताज़ा उदाहरण बौद्ध गया का है| क्यों, किसीको इसमें केशरिया रंग नजर आ रहा है और बिना अनुमान के किसी के भी मत्थे कुछ भी मढ़ देना कहाँ की समझदारी है ? इसका लाभ चुनाव में तो मिल सकता है उसके आगे का विचार किया है कभी| शायद नहीं| बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने ऐसी बेकार बातों पर टिप्पणी करने से इंकार कर ठीक ही किया|
फैशन बनता जा रहा है, कुछ भी बोलना और इससे ज्यादा खतरनाक है अपनी धारणा से जाँच एजेंसियों को प्रभावित करना| उदाहरण है कुछ ऐसे मामले जहाँ कई दिनों तक बेकसूर जेल में रहे है और शायद कुछ तो अभी भी हैं, क्योकि वक्तव्यवीरों ने रोज़ एक राग अलाप कर जाँच एजेंसियों को गुमराह किया| लानत है ऐसे वोटों के लालच पर, जो सही और गलत में भेद नहीं कर पा रहे है, वोटों के दीवाने|