सबसे ज्यादा विवाहित पुरुष कर रहे हैं आत्महत्या

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इसे भारतीय परिवारों में लगातार घटती व्यक्तिगत सहनशीलता की डरावनी नजीर कह लीजिये या ‘सात जन्मों के बंधन’ में भावनात्मक गरमाहट के टोटे का जीता-जागता सबूत. लेकिन देश में कुंवारों के मुकाबले शादीशुदा लोगों में जिंदगी से हार मानकर खुदकुशी की प्रवृत्ति ज्यादा बनी हुई है।

एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2012 में आत्महत्या के सरकारी आंकड़ों पर वैवाहिक स्थिति के हिसाब से नजर डाली जाये तो पता चलता है कि पिछले साल अपनी जीवन लीला का खुद अंत करने वालों में 70.3 फीसदी विवाहित थे, जबकि 22.6 प्रतिशत शादी के बंधन में कभी नहीं बंधे थे।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2012 में देश में आत्महत्या के कुल 1,35,445 मामले दर्ज किये गये थे. पिछले साल 63,343 शादीशुदा पुरुषों ने जान दी, जबकि 31,921 विवाहिताओं ने आत्महत्या का कदम उठाया।

वर्ष 2012 में खुदकुशी करने वाले कुंवारे पुरुषों की संख्या 19,727 थी. वहीं शादी के बंधन में नहीं बंधने वाली 10,830 महिलाओं ने मौत को गले लगाया. पिछले साल आत्महत्या का कदम उठाने वाले लोगों में 3.7 प्रतिशत विधुर या विधवा के दर्जे वाले थे।

खुदकुशी करने वालों में 3.5 प्रतिशत लोग या तो तलाकशुदा थे या किसी वजह से अपने जीवनसाथी से अलग रह रहे थे।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल खुदकुशी के मामलों में पुरुष-स्त्री अनुपात 65:35 रहा यानी जान देने वाले हर सौ लोगों में 65 पुरुष और 35 महिलाएं थीं. यह आंकड़े एक और चिंताजनक पहलू की ओर ध्यान खींचते हुए बताते हैं कि वर्ष 2012 में आत्महत्या करने वाले हर छह लोगों में से एक गृहिणी थी।

एनसीआरबी की रिपोर्ट खुदकुशी का कदम उठाने वाले भारतीयों के मनोविज्ञान पर रोशनी भी डालती है. रिपोर्ट बताती है, ‘यह देखा गया कि पिछले साल ज्यादातर पुरुषों ने सामाजिक और आर्थिक कारणों से आत्महत्या की, जबकि अधिकतर महिलाओं ने भावनात्मक और निजी वजहों के चलते खुद अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।’

नामी मनोचिकित्सक दीपक मंशारमानी का कहना है कि देश में कुंवारों के मुकाबले विवाहितों में जान देने की प्रवृत्ति ज्यादा होना स्पष्ट करता है कि वैवाहिक रिश्तों में अब पहले जैसी भावनात्मक उष्मा नहीं रह गयी है और ‘सात जन्मों का बंधन’ मजबूत सहारे के बजाय किसी ‘पेशेवर भागीदारी’ की तासीर अख्तियार करता जा रहा है।

मंशारमानी ने कहा, ‘भारतीय समाज के ताने-बाने में बड़े बदलावों और परवरिश की गलतियों के कारण लोगों में व्यक्तिगत सहनशीलता लगातार कम होती जा रही है. इससे विवाह नामक संस्था भी कमजोर हो रही है.’ उन्होंने कहा कि शादियां तब ही लम्बे समय तक चल सकती हैं, जब पति-पत्नी एक-दूसरे की कमियों को कबूल करते हुए आपस में पूरक बनें।

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