आखिर चाहती क्या है भारत सरकार ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। सबसे ज्यादा तजुर्बे का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टी, ख्यातनाम अर्थ शास्त्री प्रधानमंत्री, अनुभवी वित्त मंत्री, और निर्णय ऐसे जिससे देश निरंतर रसातल की ओर, इसे क्या संज्ञा दें समझ से परे है।

बाहर रूपये की कीमत गिर रही है, अंदर सट्टेबाजी चल रही है।  देश ने ऐसा समय पहले कभी नहीं देखा ।वित्तमंत्री कुछ-कुछ सलाह दे रहे हैं। राजकोषीय घाटे  के लिये  अब वे सोने की खरीद को जिम्मेवार बता रहे हैं। लगता है कहीं कुछ गडबड है, शायद उन्हें  भ्रम होगया है की वे ही सब कुछ जानते हैं। चाहे आतंकवाद का मामला हो या नक्सली समस्या या देश का राजकोषीय घाटा  सब में उनका दखल। सच मायने में पी चिदम्बरम " जेक ऑफ़ आल बट  मास्टर ऑफ़ नन" की उक्ति के उदाहरण हैं।

माओवाद से निबटने के लिए वे सम्पूर्ण सहमति की आड़ में उनका व्यवहार उस बनिये जैसा हो गया, जो यह समझ बैठा है कि पैसे में ही सारी ताकत होती है। वे उन राज्यों की आर्थिक सहायता कम करने के मंसूबे बांध रहे है, जो उनकी खींची लकीर से इधर उधर हो रहे हैं । पहले भी वे नक्सलवादियों से निबटने के लिए सेना की तैनाती के पक्षधर थे। अब सोने पर डियूटी बढकर सोने की तस्करी को बढ़ावा देने का इरादा दिखता है।

पहले तेल में खेल कर जनता को महंगाई के मुँह में झोंक दिया। सट्टेबाजी जिसके सीधा प्रभाव सोने की खरीद पर पड़  रहा है, आंकड़े बताते है इस साल मई माह में सोने का आयात पिछले साल के मुकाबले दुगना हुआ। अब वित्त मंत्री बैंकों को सलाह दे रहे है कि उपभोक्ताओं को सोने के बाज़ार से दूर किया जाये। मतलब सोना सटोरियों .तस्करों और चोरी छिपे हथियार खरीदने वालों तक सीमित हो जाये, ध्यान रहे, इनमे से कोई भी कर नहीं देता है। पता नहीं सरकार क्या चाहती है ?


  • लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं। 
  • संपर्क  9425022703 
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