कन्फ्यूजन बरकरार: क्या चुनावों में सक्सेस दिला पाएगा राहुल का नया रिस्क

भोपाल। विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में प्रभारी बदलकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बड़ा रिस्क लिया है। राजस्थान, दिल्ली और मध्य प्रदेश के प्रभारी तब बदले गए हैं जब चुनाव में कुछ ही महीने रह गए हैं।
तीनों ही राज्यों में बड़े नेताओं के बीच इस कदर झगड़े हैं कि इन्हें सुलझाने के लिए उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लगना पड़ा। नए प्रभारियों के लिए थोड़े वक्त में इन राज्यों को समझकर वहां नेताओं के बीच तालमेल बिठा पाना किसी चुनौती से कम नहीं है।

मध्य प्रदेश के नए प्रभारी मोहन प्रकाश के लिए चुनाव प्रबंधन से ज्यादा जरूरी महासचिव केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और पूर्व अध्यक्ष सुरेश पचौरी, सत्यब्रत चुतुव्रेदी को एकजुट रखने की चुनौती है। यह आसान काम नहीं है।

फैल हो चुके हैं भूरिया बस सर्टिफाइड करना बाकी है

पूर्व प्रभारी बीके हरिप्रसाद कोशिश करके इन सभी नेताओं को एक मंच पर तो ले आए थे लेकिन चुनाव तक ये सभी नेता एक साथ ऐसे ही मंच पर दिखते रहेंगे कहना मुश्किल है। प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के बस का ज्यादा कुछ नहीं है, वो तो हर कदम के लिए महासचिव दिग्विजय सिंह की ओर ताकते हैं। भूरिया को दिग्विजय सिंह और पूर्व प्रभारी ने बहुत मदद की लेकिन वह संगठन को मजबूत करने में नाकाम रहे हैं।

कांग्रेस हाईकमान भी जान रहा है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री की वजह से भाजपा की स्थिति बेहतर बनी हुई है. अब बात इसी की हो रही है कि मुख्यमंत्री के असर को कैसे कमजोर किया जाए। 

नए प्रभारी मोहन प्रकाश बोलने में विश्वास नहीं रखते, वह कुछ बोल भी नहीं रहे हैं। उनका कहना है कि उन्हें भाजपा के खिलाफ जो भी बुलवाना होगा वह राज्यों के नेताओं से बुलवाएंगे क्योंकि भाजपा से सीधा मुकाबला तो उनको ही करना है।

मोहन प्रकाश की यह हमेशा से रणनीति रही है, वह जिन-जिन राज्यों के प्रभारी रहते हैं उनके विषय में सीधे कुछ नहीं बोलते बल्कि रणनीति बनाते हैं और उस पर काम कराते हैं। नए प्रभारी चुनौतियों से चाहे जैसे निपटें पर कांग्रेस में यह कहने वाले भी कम नहीं हैं कि ऐन चुनाव के मौके पर प्रभारी बदलकर राहुल गांधी ने बड़ी रिस्क ली है। ऐसे नेता बहुत मिल जाते हैं जो यह कहते हैं कि कम समय में बहुत अच्छा प्रभारी भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकता।

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