राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत के मुख्य सूचना आयुक्त के क्रांतिकारी फैसले के खिलाफ सारे राजनीतिक दल लामबंद हो गये हैं। किसी को संवैधानिक संकट नजर आने लगा है, तो किसी को लोकतंत्र कमजोर होने का डर सताने लगा है।
राजनीतिक संप्रभुओं से सवाल है की राजनीति में आते ही आप नागरिक से उपर उठकर कुछ हो जाते हैं क्या ? क्या आयोग और न्यायालय के प्रति सिर्फ नागरिकों की ही जवाबदारी है, आपकी नहीं। आप में से ऐसा कौन सा दल है जो अपने घोषणा पत्र में पारदर्शी प्रशासन की बात नहीं कहता? अब पारदर्शिता से क्या संकट हो जायगा ?
सूचना के अधिकार कानून का सृजन पारदर्शी प्रशासन और भ्रष्टाचार उजागर करने की एक तकनीक के रूप में हुआ था। अब इस फैसले के बाद वो सब भी पारदर्शी होने की सम्भावना बलवती हुई है जहाँ से एक कदम की दूरी पर जनकल्याण और दो कदम की दूरी पर वह सब खड़ा है , जिसे संसद और विधानसभा में माननीय सदस्य भ्रष्टाचार कहते हैं । इसी दूरी का फायदा धनबल और बहुबल से सत्ता को अपनी गुलाम बनाने वाले और आकाश से पाताल तक पलीता लगाने वाला बाज़ार खड़ा होता है।
फैसले पर कोई बहस हो , उसकी अपील हो , इससे तो किसी ने रोका नहीं है । हाँ ! थैलीशाहों को जरुर कष्ट हो रहा होगा, क्योकि उन्हें खरीदने की आदत है । ६ माह की मोहलत भी मिली है , पर यहाँ तो सब ६ घंटे में ही बिलबिला गये । अंग्रेजी में कहावत है "चैरिटी बिग्न्स फ्रॉम होम " अगर आप ही सूचना के अधिकार से परहेज़ करेंगे , तो किस मुँह से पारदर्शी प्रशासन की बात कहेंगे । समाचार पत्रों में छपी जानकारी राजनीतिक दलों को भारी सरकारी मदद की बात कह रही है । कुछ तो है, बगैर आग के धुआं थोड़े ही निकलता है।