भाजपा पर भारी महत्वाकांक्षाएं

प्रदीप सिंह/ लालकृष्ण आडवाणी को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान में अटल बिहारी वाजपेयी की छवि नजर आती है। यह सुनकर शिवराज सिंह चौहान का खुश होना लाजिमी है क्योंकि भाजपा का शायद ही ऐसा कोई नेता हो जो वाजपेयी जैसा न बनना चाहता हो।
आडवाणी जी तो वाजपेयी जैसा बनने की कोशिश में पाकिस्तान तक चले गए थे। आडवाणी का लंबा राजनीतिक अनुभव है। वाजपेयी के साथ करीब छह दशक तक काम किया है। वह अगर ऐसा कह रहे हैं तो ठीक कह रहे होंगे। पर ठहरिए, जरा अपनी याददाश्त पर जोर डालिए। आपको कुछ और भी याद आएगा। मुझे याद आ रहा है। पीवी नरसिंहा राव को देश के प्रधानमंत्री बने कुछ ही अर्सा हुआ था। आडवाणी उस समय लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। उन्होंने एक दिन पत्रकारों से कहा कि उन्हें नरसिंहा राव में लालबहादुर शास्त्री की छवि नजर आती है। उसके बाद क्या हुआ अब इतिहास बन चुका है।

शिवराज सिंह चौहान पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी रह चुके हैं। पिछले आठ साल से वह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री की तारीफ करने में अस्वाभाविक कुछ नहीं है। फिर उन्होंने भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों की तारीफ की, सिर्फ शिवराज सिंह चौहान की तो की नहीं। पर इसके साथ ही एक सवाल और है कि आडवाणी को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री में वाजपेयी की छवि उस समय ही क्यों नजर आई जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने की बात हो रही है। राजनीति में बात कहने के समय की अहमियत भला उनसे बेहतर कौन जानता है। आडवाणी जो कह रहे हैं उस पर सवाल नहीं उठ रहा है। सवाल बात के पीछे की नीयत पर उठ रहा है। राजनाथ सिंह समेत पार्टी के सारे वरिष्ठ नेता लोगों को यह समझाने में लगे हुए हैं कि आडवाणी के बयान को गलत समझा गया है। पर खुद आडवाणी ने एक बार भी नहीं कहा कि उनके बयान को गलत समझा गया है।

जो लोग राजनीतिक दलों के कार्यकलाप पर नजर रखते हैं वे जानते हैं कि पार्टी का वरिष्ठ नेता जब ऐसी बातें सार्वजनिक रूप से बोलने लगे, जो पार्टी के मंच पर कही जा सकती है, तो इसका एक ही अर्थ है कि कुछ तो गड़बड़ है। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आडवाणी अपने अलावा किसी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नहीं देखना चाहते। इसलिए जब वह शिवराज सिंह चौहान को नरेंद्र मोदी से बेहतर मुख्यमंत्री बताते हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने की बात नहीं करते। दरअसल आडवाणी को एक ऐसे अस्त्र की तलाश है जो मोदी नाम की बाधा को ध्वस्त करके उनका मार्ग प्रशस्त कर दे। 

इसीलिए वह कभी सुषमा स्वराज की ओर देखते हैं तो कभी शिवराज सिंह चौहान की ओर। जिन नितिन गडकरी के विरोध में वह किसी भी हद तक जाने को तैयार नजर आ रहे थे उनसे भी हाथ मिलाने में उन्हें गुरेज नहीं है। आडवाणी जब तक विपक्ष के नेता थे उनका मानना था कि वेस्ट मिनिस्टर व्यवस्था में लोकसभा में विपक्ष का नेता प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार होता है। इस पद से हटने के बाद इस बारे में उनके विचार सुनने को नहीं मिले। तो एक बात तो साफ है कि भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदार को लेकर आडवाणी ने मोर्चा खोल दिया है। जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है। जाहिर है कि उन्हें इस बात का एहसास है कि पार्टी के संसदीय बोर्ड में बहुमत उनके खिलाफ है।

व्यक्तिगत हित या महत्वाकांक्षा जब संगठन के हित पर भारी पड़ने लगती है तो वही होता है जो आडवाणी कर रहे हैं। सभी के जीवन में कुछ ऐसी असफलताएं या अधूरी महत्वाकांक्षाएं होती हैं जिनके बारे में वह वास्तविकता को कभी स्वीकार नहीं कर पाता है। आडवाणी के साथ भी ऐसा ही है। राजग के कार्यकाल में ही उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का प्रयास किया। नाकाम रहे। वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से हटने के बाद उन्होंने इस मुकाम को हासिल करने के लिए अपनी छवि बदलने की कोशिश की। इस चक्कर में पार्टी से बाहर होते-होते बचे। 2009 में उन्हें प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जाना नारायण मूर्ति के इन्फोसिस में लौटने जैसा था। 

जिसका एक ही आधार था कि अगली पीढ़ी अभी नेतृत्व के लिए तैयार नहीं है। उन्हें यह मौका देकर पार्टी की दूसरी पीढ़ी ने एक तरह से पितृ ऋण उतारने की कोशिश की। सबको लगा अब आडवाणी का वानप्रस्थ शुरू हो गया। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने घोषणा भी कर दी कि चुनावी राजनीति में यह उनकी अंतिम पारी है। अब परिवार का कोई बुजुर्ग वानप्रस्थ से गृहस्थ आश्रम में लौट आए तो जो होता है भाजपा में वही हो रहा है। आडवाणी जी आउट होने के बाद जिद कर रहे हैं कि वे एक बार फिर से बैटिंग करेंगे।

पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी फिर गोवा में हो रही है। यह वही जगह है जहां 11 साल पहले आडवाणी नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ढाल बनकर खड़े थे। उन्होंने पार्टी और सरकार के सर्वोच्च नेता अटल बिहारी वाजपेयी की नहीं चलने दी। वाजपेयी ने अपने सहयोगी का सम्मान किया और उस मुद्दे को प्रतिष्ठा की लड़ाई नहीं बनने दिया। उस समय नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो तलवार वाजपेयी के हाथ में थी आज आडवाणी के हाथ में है। फर्क इतना है कि उस समय तलवार और ढाल दोनों में संगठन के हित की फौलाद थी। आज तलवार में फौलाद की बजाय व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की मोम है।

भाजपा के संसदीय बोर्ड में जितने नेता हैं उनमें से वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी के अलावा सभी आडवाणी के बनाए हुए हैं। संसदीय बोर्ड से बाहर भी ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। इसके बावजूद आडवाणी पार्टी में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। अपने ही बनाए लोगों के बीच आज उनका कद बौना हो गया है। उनके खिलाफ लोग बोल नहीं रहे तो इसलिए नहीं कि उनमें हिम्म्त नहीं है। यह चुप्पी अपने नेता के अतीत का सम्मान और लिहाज है। 

इस खामोशी को समर्थन या कमजोरी समझना आडवाणी की भारी भूल होगी। गोवा की कार्यकारिणी आडवाणी के लिए पिछले कुछ सालों की गलतियों को सुधारने का अवसर लेकर आई है। उनके पास वाजपेयी जैसा बनने का एक आखिरी मौका है। व्यक्तिगत इच्छा पर सामूहिक इच्छा को तरजीह देने का मौका। जैसा वाजपेयी ने 11 साल पहले किया था। अगर ऐसा हुआ तो आडवाणी गोवा से पार्टी के सर्वोच्च नेता का सम्मान और भाजपा एक अनुभवी राजनीतक अभिभावक लेकर लौटेगी।

[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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