आजम खान। हर शख्स ने उसकी अशिक्षा और सीधेपन का उठाया नाजायज फायदा और सरपंच के नाम पर उसके पास एक सील और दस्तखत के अधिकार के अलावा कुछ नहीं पति को पहले मिल जाती थी मजदूरी, सरपंच पति बनने के बाद वो भी हाथ से जाती रही है।
पंचायती राज व्यवस्था भले ही गांवों में विकास की नई इबारत लिखने के मकसद से की गई हो लेकिन मध्यप्रदेश के दमोह जिला मुख्यालय से 75 किलोमीटर दूर बछामा गांव की महिला सरपंच की हालत इस व्यवस्था की कुछ और कहानी ही बयां करती है।
उसके मासूम बच्चे जंगली फलों को ही टॉफी- चॉकलेट समझ कर खाते हैं तो तन पर कपडे़ का जुगाड़ करना भी कोई मुसीबत से कम नहीं।
पंचायती राज व्यवस्था की ऐसी दुर्दशा जानकर किसी का भी चौंकना लाजिमी तो है लेकिन इससे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि जिले के आला अधिकारी सरपंच की इस हकीकत से पूरी तरह वाकिफ हैं, पर केवल आश्वासन से काम चले तो किसे इतनी फुरसत है कि गाव की तंग गलियों का मुश्किल सफर तय कर लोकतंत्र के किसी गरीब पहरुए का दुख दर्द दूर करने की कोशिश करें।
दमोह जिले के हटा विकासखंड के बछामा गांव का सफर कोई आसान काम नहीं। घंटों चलने के बाद पथरीले रास्तों से यहां पहुंचना मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं।
चारों तरफ एक जैसी पत्थर की झोपड़ियां और तंगहाल लोग। पंचायत राज व्यवस्था की हकीकत बयां करती यह है दमोह के एक गांव की असली तस्वीर। गांव के मुखिया से मिलने पर नजारा और भी चौंकाने वाला था।
दलित सरपंच रजनी बंसल भीख मांगने में मशरूफ
दलित सरपंच रजनी बंसल अपने बच्चों के साथ दर-दर भीख मांगने में मशरूफ थीं। जब उनसे इस तंगहाली की वजह जानी तो प्रदेश सरकार के विकास की हकीकत उनकी आंखों से छलक कर सारी पोल खोल गई।
गांव के लोगों ने वोट दे कर रजनी को सरपंच तो बना दिया पर सरपंच बनने के बाद से ही उसके साथ छलावा होता रहा है। किसी सचिव ने घर बनवा देने का वादा किया तो किसी ने मोटर साइकिल दिलाने का छलावा किया।
गांव के सचिव बनते संवरते गए पर रजनी की तंगी जस की तस रही। गांव के सचिव बदलते रहे लेकिन सबने खूब हाथ मारा। यहां तक की कागजों में रजनी के ऊपर कर्ज तक चढ़ गया और जब कर्ज का बोझ पता चला तो पैरों तले जमीन खिसकने लगी।
जिला कलेक्टर को अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाई तो समाधान का आश्वाशन तो मिला लेकिन उन्हें आज भी कलेक्टर के गांव- घर आने का इंतजार है।
हर शख्स ने रजनी की अशिक्षा और सीधेपन का नाजायज फायदा उठाया। नाम की सरपंच रजनी के पास एक सील और दस्तखत के अधिकार के अलावा कुछ नहीं है।
गांव में विकास के नाम पर क्या काम हो रहा है और क्या खर्च होगा, इसकी जानकारी तक उसे नहीं होती। गांववाले तो यह भी बताते है कि रजनी को राष्ट्रीय पर्वों पर भी कुर्सी भी नसीब नहीं होती है। पति को पहले तो मजदूरी मिल जाती थी पर सरपंच पति बनने के बाद वो भी हाथ से जाती रही। मजदूरी मांगने पर ताने मिलते हैं।
गांव के लोग बताते है कि गरीबी और तंगहाली में गुजर बसर करने वाली दलित महिला सरपंच की सुनने वाला कोई नहीं इसलिए गांव विकास से अछूता है। ऐसा नहीं है कि रजनी के हालात से जिला प्रशासन वाकिफ नहीं है।
आला अधिकारी भी उसे जानते है पर किसी ने आज तक उसकी तंगहाली दूर करने की कोशिश नहीं की और ना ही जाना की इसके हालात ऐसे क्यों बने। इस संबंध में दमोह जिला पंचायत के सीईओ डॉ जेसी जटिया कहते हैं कि जांच की जाएगी, टीम भी रवाना की गई है।
प्रशासन का बार- बार यह कोरा आश्वासन तब है जब मध्य प्रदेश के पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव ज्यादातर समय दमोह के प्रभारी मंत्री रहे।
इसके अलावा दो- दो कैबिनेट मंत्री जयंत मलैया (जल संसाधन मंत्री ) और डॉ रामकृष्ण कुसमारिया (कृषि मंत्री) इसी जिले से नुमाइन्दगी करते आ रहे हैं। ऐसे में जिले की एक दलित महिला सरपंच के ऐसे हालात सीधे राज्य की शिवराज सरकार पर ही सवालिया निशान लगा रहे हैं।