राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश का योजना आयोग गरीबी की रेखा, प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्र का सकल उत्पाद और न जाने क्या क्या, तय करता है । तब देश की सरकारें तय करती है कि नीति क्या हो ? नीति का लाभ सत्ताधारी दल को क्या होगा ? इस नीति का श्रेय हम कैसे लूटे यह पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों सोचते हैं , और दोनों की खींच-तान में बिल संसद सत्र में आता नहीं है ,अध्यादेश लाया जाता नहीं है तथा मूल भावना ही नष्ट हो जाती है और अपने हित साधने में सरकार और प्रतिपक्ष सफल हो जाते हैं ।
खाद्य सुरक्षा बिल की चर्चा जोरों पर है, इसके लाने के पीछे सरकार या प्रतिपक्ष की कोई सदाशयता नहीं है, देश के किसान की जी तोड़ मेहनत है । सरकार की चिंता का तो कहना ही क्या है,गोदाम बना नहीं सकती और सड़ते अनाज को उच्चतम न्यायलय के आदेश के बाद गरीबों को रियायती दर / मुफ्त नहीं दे सकती । बिल के बगैर सरकार कैसे करे, यह प्रश्न है संविधान में बिल बनाने की प्रक्रिया है रोटी देने की नहीं । कल्याणकारी राज्य और उसका प्रतिपक्ष संविधान से अलग हटकर जो कार्य करता है, उससे फुर्सत मिले तो संविधान में वर्णित कल्याणकारी राज्य बनाये ।
बड़े मियां बड़े मियां -छोटे मियां सुभानाल्लाह मुहावरे की तर्ज़ पर राज्य सरकारें भी चुनाव आने के आसपास ऐसे ही प्रयोग देश में करती है छत्तीसगढ़ ,तमिलनाडू और अब मध्यप्रदेश में ऐसे प्रयोग देखने को मिल रहे हैं । फोटो में ये योजनायें बहुत लुभावनी दिखती है , पर मुख्यमंत्री हर राशन की दुकान पर थोड़े ही जाता है । दुकान तो सत्तारूढ़ पार्टी का कार्यकर्ता चलाता है। केंद्र सरकार की रिपोर्ट कहती है जन वितरण प्रणाली {पी डी एस }में ५० % से अधिक लीकेज [घोटालेका छोटा भाई ] है ।
इस विषय पर विश्व में बहुत से सफल प्रयोग हुए हैं, विदेश यात्रा के नाम पर यहाँ-वहाँ भटकती सरकार और प्रतिपक्ष को श्रेय लुटने के पहले कुछ अध्ययन कर लेना चाहिए । भूखे तो अभी भी रोटी की जुगाड़ कर लेते हैं।