यह होली और ये बारूदी गंध

राकेश दुबे@प्रतिदिन। स्थिति यह है देश हमारा, वेश हमारा पर त्योहारों की ऊष्मा उर्जा और उल्लास पर कुछ देसी और कुछ विदेशी पहरे| अर्थ खोते जा रहे हैं, व्यंग और कटाक्ष की भाषा अपना रूप बदल कर पीड़ादायक शब्दावली का रूप ले रही है| सारे समाज में एक अजीब सी मायूसी और भय दिखाई दे रहा है|

होली के रंग में, आतंकवाद बारूदी गंध घोलता है| हमारी शांति सेना के प्रयासों की बदौलत सार्वभौम राष्ट्र बने छोटे-छोटे देश होली की गुलाल में कालिख मिलाने की कोशिशें करते हैं| कारण खोजने कहीं ओर जाने की जरूरत नहीं है कारण हमारे न्यस्त स्वार्थ हैं| कोई किसी को सांप बिच्छू कह रहा है तो कोई किसी को दीमक| इस शब्दावली का उपयोग भंग की तरंग में नही हुआ| देश को जो अपना समझते है, उन्हें देश की स्थिति देख कर दर्द होता है|

देश की सत्ता पर काबिज़ लोग प्रयोगों से देश चला रहे हैं| सारे देश में हैदराबाद कांड के पहले भी एक सवाल कई बार पूछा जा चुका है| इस आतंकवाद का अंत कब| देश का गृह मंत्रालय “हिज मास्टर्स वोइस” की तर्ज़ पर चलता है| यह होली की ठिठोली नहीं है, हकीकत है कि बिजली जैसे से विभाग को न चला पाने वाले से गृह विभाग जैसा सम्वेदनशील विभाग का काम लिया जा रहा है|

देश के भीतर और बाहर दोनों ही और संकट हैं| पूरा भारत गरीब हो रहा है, सिवाय उनके, जो सरकार चलाने के गौरखधंधे में पक्ष या प्रतिपक्ष में बैठे हैं अथवा किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी से सीधे या परोक्ष से जुड़े हैं| ऐसे में क्या कोई त्यौहार रंगीन हो सकता है ? फ़िलहाल होली की शुभकामना|

  • लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं। 

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