राकेश दुबे@प्रतिदिन/ भारत के 27.5 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं| यह किसी और कहना नहीं है, भारत के सरकार के अधिकृत आंकड़े हैं| छोटे शहरों की बात छोड़ दे, तो मुम्बई में 41.3, कोलकाता में 29.6 चेन्नई में 28.5 दिल्ली में 14.6 और बंगलुरु में 8.5 प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है|
महानगरों और राज्यों की राजधानी और बड़े शहरों के आसपास उग आई अवैध कालोनियों में रहने वालो का आंकड़ा भी कम नहीं है| फिर सवाल यह है कि केंद्र सरकार की आवास नीति और राज्य सरकार की आवास नीति किसके लिए और क्यों बनती हैं|
जिन राज्यों में चुनाव होने होते हैं| वहां सत्तारूढ़ दल दो नीतियाँ चुनाव के पहले घोषित करते हैं| एक आवास नीति और दूसरी उद्द्योग नीति दोनों ही जमीन से जुडी होती है| जमीन से जुड़े लोगों के लिये नहीं होती| प्रत्येक राजनीतिक दल एक अदद आशियाने का ख्वाब अपने घोषणा पत्र में शामिल करता है| चुनाव के बाद आवसीय भूमि में पर बमुश्किल कुछ सरकारी एजेंसियां घर बना पाती है| रसूखदार लोग खुद या उनके अपने सगे सम्बन्धी या बिल्डर मनमानी से मनमाने दाम पर मकान जैसा प्रयोग कर देते है| इन प्रयोगों पर वैध और अवैध की तलवार हमेशा लटकती रहती है|
केंद्र सरकार में कुछ ऐसे भी मंत्री है ,जिन्हें बड़े महानगर बसाने या बनवाने के अनुभव है| उनके अनुभव का लाभ सरकार से ज्यादा उन लोगो को मिलता है जो आशियाने के सपनों के सौदागर है| कर्नाटक में सपनों के सौदागर सक्रिय हो गये है, उन राज्यों में भी वे लोग सक्रिय है जहाँ चुनाव होना है| उद्द्योग की जमीन बड़े नेताओं के लोगों से बचे तो किसी को मिले| हरियाणा जैसे किस्से और अन्य राज्यों में भी है| निर्वाचन आयोग को पहले से नजर रखना चाहिए|
- लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं।