दामोदर गुप्ता/ 'बाबूजी' और 'काका साहब' के नाम से लोकप्रिय बाबूलालजी बाहेती अपने आप में एक संस्था थे। 3 अक्टूबर 1919 को खुड़ैल के निकट ग्राम पिवडाय में सेठ जयनारायण बाहेती के घर आए बाबूजी ने बीए, एमए एवं एलएलबी जैसी उच्च शिक्षा उस जमाने में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, जब इन उपाधियों को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। संभवत: तब आसपास के गांवों में भी कोई इतना पढ़ा-लिखा नहीं होगा।
इंदौर आकर कॉलेज में पढऩे और पढ़ाई के साथ किसी नए कारोबार की तलाश के लक्ष्य से इंदौर आए। बाबूजी ने दो वर्षों तक जिला न्यायालय में वकील के रूप में भी काम किया लेकिन वहां व्याप्त माहौल उन्हें रास नहीं आया और स्वंय के कारोबार में जुट गए।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि बाहेतीजी के इंदौर आने के पूर्व उन्होंने पिवड़ाय से 4 कि.मी. दूर खुड़ैल में भी काम-धंधा जमाने की कोशिश की। खुड़ैल में मेरे बड़े भाई शंकरलाल गुप्ता के साथ उन्होंने कंट्रोल के कपड़े की दुकान शुरू की थी। तब कपड़े पर भी अंग्रेज सरकार ने कंट्रोल लगा रखा था। बाहेतीजी पिवड़ाय से पैदल चलकर सुबह खुडै़ल आते तो अपनी थैली में जाम-आम या मौसमी फल लेकर आते और रास्ते में मिलने वालों को भेंट कर दिया करते थे।
मेरे एवं शंकरलाल गुप्ता के पिता का नाम भी जयनारायण सेठ था और बाहेतीजी के पिताश्री का भी। दोनों जयनारायणों में अच्छी दोस्ती थी। बाहेतीजी मूलत: जीरण (मंदसौर) के परिवार के थे लेकिन उन्हें पिवड़ाय के जयनारायण सेठ ने तब गोद लिया था जब उनकी कोई संतान नहीं थी, लेकिन संयोग से बाहेतीजी को गोद लेने के दो वर्ष के भीतर ही जयनारायण सेठ के यहां संतान हो गई, वह भी पुत्र के रूप में। बाबूलाल को इस तरह गोविंद नाम का एक भाई मिल गया। घर में दो-दो बेटे हो गए थे। उनके पिता असंमजस में पड़ गए कि अब बाबूलाल का क्या करें? वो अपने मित्र खुड़ैल के सेठ जयनारायण के पास मशविरा करने पहुंचे, तो जयनारायण सेठ (खुड़ैल) ने उन्हें सलाह दी कि भगवान की कृपा है, दोनों बेटों को अपने पास रखो।
सिद्धांत और जुबान के पक्के पिवड़ाय वाले जयनारायण सेठ ने उनकी सलाह को माना और इस तरहबाबूलाल बाहेती के बारे में फैसला हो गया कि वे पिवड़ाय के बाहेती परिवार के ही सदस्य रहेंगे। धीरे-धीरे बाबूलाल बाहेती ने इंदौर के नृसिंह बाजार में रहते हुए कपड़ा मार्केट में दोनों भाईयों, गोविंदाराम-बाबूलाल के नाम से कारोबार जमाया और बाबूलाल पाटोदी एवं हरिकिशन मुछाल के साथ कुछ ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि आज उनकी बदौलत इंदौर के क्लॉथ मार्केट, शिक्षण संस्थाओं और गीता भवन का नाम भी देशभर में प्रतिष्ठित बन चुका है।
जीवन के अंतिम क्षणों तक वे चैतन्य रहे। मैं जब भी गीता भवन जाता, प्रेम से गांव के परिचित लोगों के हाल-चाल पूछते और कहते थे- एक बार साथ में गांव चलेंगे। गांव के नाम और वहां की यादों से उन्हें इतना प्रेम था कि समय का भी ध्यान नहीं रहता। उम्र के अंतिम क्षणों तक वे सक्रिय रहे। उनकी याददाश्त और हेंडरायटिंग गजब की थी। कितनी ही बड़ी समस्या हो, दोनों पक्षों को सुने बिना वे कोई फैसला जल्दबाजी में नहीं करते। गांव का मकान अस्पताल एवं मंदिर को दान देने के बाद भी उनका देहाती प्रेम, वेशभूषा से भी झलकता था। अक्सर धोती-कुर्ता और बंडी (जाकेट) के अलावा उन्होंने अन्य कोई कपड़े नहीं पहने।
किसी वीआईपी के आगमन पर जरूर दो-चार बार उन्होंने पेंट-शर्ट पहनें लेकिन धोती-कुर्ता अंतिम समय तक उनका पहनावा बना रहा। हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। उनकी सरलता, सादगी और वाणी का माधुर्य हमेशा याद रहेगा। अपने सार्वजनिक जीवन में उन्होंने कभी न तो राजनीति की, न ही पक्षपात या अहंकार की बू आने दी। यही कारण था कि वे जीवन पर्यंत पूरे शहर और अपने गांव के लिए गौरव का विषय बने रहे। शहर की राजनीति में भी उनके रिश्ते सबके साथ मधुर ही रहे। कभी गुस्सा नहीं, कभी बड़े होने का रौब नहीं, कभी स्वयं को व्यस्त बताने का गुरूर नहीं। हर काम टाईम-टेबल से करने वाले बाहेती जैसे अद्भुत और कर्मठ व्यक्तित्व को गांवों की ओर से भी अंतिम राम...राम...।
(लेखक सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं खुड़ैल निवासी हैं)
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