चंदा बारगल/ धूप-छांव/ संक्रमण, एक नैसर्गिक प्रक्रिया होने से राजनीति में संक्रमण दिखाई पड़ना स्वाभाविक है। पहले भी यह दिखाई पड़ा है और भविष्य में यह दिखाई पड़ेगा, किंतु प्रत्येक संक्रमण, उस काल के नए—नए समीकरणों को जन्म देने से इस संक्रमण का फलादेश समझने को सबका मन करता है। भारतीय राजनीति में दक्षिणेत्तर क्षितिज के दो ध्रुव माने जाने वाले राजनीतिक दल अर्थात कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी। ये दोनों ही दल विचारों से ही नहीं तो आचार—उच्चार से भी भिन्न हैं तो भी दोनों ही दल एक समस्या से जूझ रहे हैं, वह है नेतृत्व का सवाल!
कांग्रेस में यह समस्या नहीं कि नेतृत्व किसका स्वीकारा जाए। वहां गांधी परिवार की ही सत्ता चलती है, और अतिहास भी इसका गवाह है। ठेठ कांग्रेस के पहले विभाजन से। कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्यूम के नेतृत्व में जब कांग्रेस की स्थापना की गई, तबसे अपनी कांग्रेस होने का दावा देवराज अर्स से लेकर अब तक अनेक लोगों ने करके देखा, किंतु किसी का भी दावा माना नहीं गया। इस देश की आम जनता ने हमेशा से ही गांधी परिवार के अगुवाई वाली कांग्रेस को ही परंपरागत कांग्रेस माना है। आज 125 साल बाद भी इस कांग्रेस की बागडोर सोनिया गांधी के पास है पर इधर 2011 से सोनिया गांधी की सेहत जैसी चाहिए वैसी साथ नहीं देने से राहुल गांधी के नेतृत्व की ओर सभी कांग्रेसजन नजर टिकाए बैठे हैं। कांग्रेस के सौ साल पूर्ण होने के उपलक्ष्य में दिल्ली के समीप बुराडी में आयोजित स्वर्ण महोत्सव में राहुल गांधी यह नेतृत्व स्वीकार करें, यह आग्रह तब अनेक लोगों ने किया था, पर तब ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस पार्टी के संविधान में संशोधन कर राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ाया गया और उस पद पर सोनिया गांधी को ही कायम रखा गया।
नेतृत्व की समस्या दूर करने के लिए भाजपा ने भी कांग्रेस की राह पकड़ी। तीन वर्ष पूर्व 25 दिसंबर को राष्ट्रीय अध्यक्ष की बागडोर संभालने वाले नितीन गडकरी का कार्यकाल भी संविधान के मुताबिक मंगलवार 15 जनवरी को खत्म हो रहा है। उनके बाद पार्टी की कमान कौन सम्हालेगा, इसकी चर्चा पिछले एक महीने के पहले से शुरू हो चुकी है। यह चर्चा तब शुरू हुई जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को और एक अवधि का कार्यकाल दिया जाना चाहिए, इस पर विचार मंथन शुरू हुआ। इस विचार मंथन के बाद पार्टी संविधान में संशोधन किया गया और आज जब नितीन गडकरी के पहला कार्यकाल खत्म हो रहा है, तब भी यह सवाल सर्वत्र पूछा जा रहा है। पार्टी संविधान के अनुसार, देश भर की कुल प्रदेश कार्यकारिणी में से आधी से अधिक कार्यकारिणी के अध्यक्ष पदों की चुनाव प्रक्रिया खत्म होने के बाद ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जाती है। संप्रति भाजपा की कुल प्रदेश कार्यकारिणी में से लगभग 22 प्रदेशों की कार्यकारिणियों में अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया संपन्न हो चुकी है, इसलिए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया कल यानी 15 जनवरी से अधिकृत रूप से शुरू हो रही है।
एक ओर कांग्रेस में राहुल गांधी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने की मांग जोर पकड़ रही है तो दूसरी ओर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की मांग उठ रही है। जब-जब मंत्रिमंडल विस्तार की चर्चा होती है, तब-तब राहुल गांधी को सरकार में महत्वपूर्ण पद देने की मांग होती है और जब पार्टी का अधिवेशन होता है, तब उन्हें संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिए जाने की मांग उठती है। यह अब तक होता आया है। दूसरी ओर, भाजपा में भी जब—जब प्रधानमंत्री पद की चर्चा होती है, नरेंद्र मोदी का नाम लिया जाता है और अब जबकि राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है, तब भी इस पद पर नरेंद्र मोदी को बिठाए जाने की मांग शुरू हो गई है पर वस्तुस्थिति यह है कि जब तक सोनिया गांधी खुद राहुल गांधी के भविष्य का निर्णय नहीं करेंगी, तब तक राहुल गांधी न प्रधानमंत्री बन सकते हैं और न ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष। यही बात भाजपा पर भी लागू होती है। जब तक आरएसएस खुद होकर नरेंद्र मोदी के भविष्य का फैसला नहीं करेगा, तब तक न तो वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकते हैं और न ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकते हैं।
आरएसएस को ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने बहुत अच्छा काम किया है और उन्हें आगे भी वही काम करते रहना चाहिए, इसलिए स्वाभाविक तौर पर यह माना जाना चाहिए कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की दौड़ से मोदी में मोदी का नाम नहीं रहेगा। फिर, भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा? इस सवाल का जवाब भी पुन: नितीन गडकरी पर आकर टिकता है। हां, अतना जरूर है कि मनोहर पर्रीकर यदि गोवा के मुख्यमंत्री नहीं होते तो अध्यक्ष पद की कुर्सी उनके नाम होती, पर अब उनका नाम भी इस दौड़ में शामिल नहीं हो सकता। चालू साल में दस राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले साल शुरूआती महीनों में ही लोकसभा के चुनाव। ऐसी स्थिति में न तो कांग्रेस और न ही भाजपा नेतृत्व में बदलाव का सोच रही है। दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दलों का एक ही लक्ष्य है, और वह है चुनाव में फतह करना, इसलिए मकर संक्रांति का फलादेश यही कहा जा सकता है कि चुनौतियों की भीड़ में नेतृत्व का मुद्दा गौण है।


