सोशल नेटवर्किंग के जरिए 'क्रांति'

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चंदा बारगल/धूप-छांव/ हमारे देश में 'क्रांति' शब्द का इस्तेमाल धडल्ले से किया जाता है। वैसे तो यह शब्द किसी बड़े राजनीतिक बदलाव का संकेत करता है,ऐसे परिवर्तन में उस भौगोलिक स्थान के समग्र राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक जीवन की उथल-पुथल हो जाती है। मसलन, लोकत़ंत्र के लिए इंग्लेंड या फ्रांस में राज-तंत्र के सामने हुई बगावत या उसके बाद सोवियत संघ में झार के राज-तंत्र के खिलाफ हुआ साम्यवादी विद्रोह।

ये विद्रोह या बगावत केवल राजनीतिक शासकों को हटाकर उनके स्थान पर दूसरे शासकों को ​पदारुढ़ कराने के लिए नहीं थे, बल्कि उनकी समूची शासन-व्यवस्था को जड़-मूल से उखाड़ कर उनके स्थान पर नई शासन—व्यवस्था शुरू करवाने के लिए हुए थे। हमारे देश में किसी जन-नेता की अगुवाई में कोई छोटी या बड़ी मुहीम या आंदोलन शुरु होती है तो उसे क्रांति बताने का फैशन है! सरकार किसी नई योजना की घोषणा करती है तो उस योजना को फलां-फलां क्षेत्र में हुई क्रांति निरूपित करती है। जैसे हरित क्रांति, श्वेत क्रांति या संचार—क्रांति। सन् 1974 में लोक-नायक जयप्रकाश नारायण ने जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ झंडा उठाया था, तब उन्होंने अपने आंदोलन को 'संपूर्ण-क्रांति' नाम दिया था।

ऐसी ही एक 'क्रांति' हमारे देश में पिछले दिनों हुई। 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' के नाम पर। गांधीवादी के रूप में मशहूर हुए अण्णा हजारे और उनकी टीम के अरविंद केजरीवाल सहित पूरी टीम राजनेताओं और उनके द्वारा आम लोगों में गहरे तक उतर गए भ्रष्टाचार के सामने 'जंग' छेड़ी थी और जन लोकपाल की मांग की थी। देश के करोड़ों लोगों ने इस आंदोलन को समर्थन दिया था। ऐसी रिपोर्ट आई थीं कि अण्णा ने क्रांति कर दी है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे इस उबाल को अनेक निष्णातों, जानकारों का मोबाइल और 'सोशल नेटवर्किंग' की वेबसाइट्स पर सतत बढ़ रही सदस्यों का समर्थन था। समूह—माध्यम, इंटरनेट पर के ब्लॉग आदि मंच पर अनेक लोगों ने इस सोशल नेटवर्किंग साईट्स क्रांति और परिवर्तन के लिए बड़े से बड़ा और मजबूत माध्यम का काम करती है, ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया था।

अमेरिका में पिछले साल अनेक लोगों ने ऐसी ही एक 'क्रांति' की शुरूआत की थी, जिसका नाम था, 'आक्युपाय पोलस्ट्रीट'(वॉलस्ट्रीट पर कब्जा करो) इस आंदोलन को भी 'सोशल नेटवर्किंग' के कारण सफलता मिली थी। यह अभिप्राय रखने वालों की मान्यता ऐसी है कि फेसबुक, लिन्कडिन आदि जैसी कोई भी बिना खर्च के लोगों को जोड़ने वाली वेबसाईट्स में लोग अपनी दूसरी बातों के अलावा अपने विचारों, मान्यताओं, प्रश्नों को जिस प्रकार व्यक्त करते हैं, उस कारण उनमें एक प्रकार की जागरुकता(अवेयरनेस)पैदा होती है और उससे वे आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक मामलों और मुद्दों के मामले में सजग होते हैं। यही नहीं, इस सजगता के कारण वे किसी भी आंदोलन या मुहीम में भाग लेने के लिए कदम भी उठाते हैं।

खैर, भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा के आंदोलन और 'आक्युपॉय वॉलस्ट्रीट' जैसी क्रांति केवल एक साल की अवधि में ही भुला दी गई हैं। उनकी मुहीम या आंदोलन को जैसा समर्थन मिला था, वैसी सफलता नहीं मिली और उन्हें उसे समेट लेना पड़ा। सवाल यह है कि जिस आंदोलन के लिए भारत या अमेरिका की 'आम जनता' में इतना बड़ा 'उबाल' देखा गया था, वह उबाल इतनी तेजी से क्यों सिमट गया? जानकारों के मुताबिक, मोबाइल फोन से तीव्रता से प्रसारित ​होने वाले एसएमएस और सोशल नेटवर्किंग की वेबसाईट्स पर लोगों के मंतव्य ही मुख्य तौर पर ऐसी 'क्रांति' के लिए जिम्मेदार होते हैं तो उसका अर्थ यह हुआ कि इस 'क्रांति' में देश की कुल आबादी के मुकाबले बहुत कम लोग शामिल हैं, क्योंकि 'इकॉनामिक टाइम्स' में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में फिलहाल (2012)इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 15 करोड़ है और देश की कुल आबादी में वयस्क लोगों की संख्या(18 वर्ष से उपर) लगभग 50 करोड़ से उपर मान भी लें तो यह कहा जा सकता है कि देश की बालिग आबादी का तीसरा भाग इन तमाम घटनाओं से अनभिज्ञ है, क्योंकि इंटरनेट ही न हो तो ऐसी वेबसाइट्स के सक्रिय होने की संभावना ही नहीं है।

'आम—जनता' यानी आबादी की एक बड़ी बस्ती तो 'सोशल नेटवर्किंग' में ही नहीं तो ऐसी जनता के केवल एक छोटे से हिस्से की सहानुभूति पर चलने वाला 'आंदोलन' कितने समय तक दम पकड़ सकता है? फिर, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर होने वाले तार्किक विश्लेषण के बजाय निजी विचार अधिक देखने को मिलते हैं। अर्थपूर्ण चर्चा या बातचीत बहुत कम देखने को मिलती है। इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं और कुछ गलत भी नहीं, पर कहने का तात्पर्य यह कि मोबाइल या इंटरनेट के सहारे कोई आंदोलन सफल हो रहा है या क्रांति हो रही है, यह मान लेना भूल ही होगी।
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