इस बदमिजाज व्यक्ति के कारण चीन से हार गया था भारत

उपदेश अवस्थी। भारत चीन युद्ध के बारे में भारतीयों के पास अब भी केवल उतनी ही जानकारी है जितनी नेहरू विरोधी एक संगठन विशेष ने उपलबध कराई है। जबकि वास्तविकता इससे बहुत अलग है। हां भारत का प्रधानमंत्री होने के नारे हार के जिम्मेदार नेहरू ही हैं लेकिन वो पदीय जिम्मेदारी मात्र है। हार का कारण तो कुछ और ही है। क्या आप जानते हैं कि इस युद्ध में केवल 2000 सैनिक मारे गए थे। 1383 भारत के और 722 चीन के। सीमा पर चीन ने 80 हजार सैनिक भेजे थे जबकि भारत के मात्र 12000 सैनिक तैनात थे लेकिन फिर भी युद्ध जीता जा सकता था। इतिहास गवाह है, इस तरह की संख्या में भी आजादी से पहले भारत ने कई युद्ध जीते हैं। एक बार तो माख् 40 मराठा सैनिकों ने 4500 मुगल सैनिकों को युद्ध में मार गिराया था। सवाल यह भी है कि क्या भारत की सेना में केवल 12000 ही सैनिक थे। क्या और सैनिक सीमा पर नहीं भेजे जा सकते थे। वो कौन था जिसने इस युद्ध का कलंक भारत के माथे पर मढ़ दिया। 

इस युद्ध में भारत की हार के लिए जिन लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, उनकी सूची काफ़ी लंबी है लेकिन पहले नंबर से लेकर 10वें नंबर तक जो नाम दर्ज किया जाना चाहिए वो है भारत का बदमिजाज रक्षामंत्री कृष्ण मेनन, जो 1957 से ही रक्षा मंत्री था। कृष्ण मेनन ने अपने चहेते अफसर लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया था। उस समय वो पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है। बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे। साथ ही वे गजब के जोश के कारण भी जाने जाते थे, जो उनकी महत्वाकांक्षा के कारण और बढ़ गया था लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था। कृष्ण मेनन ने यह नियुक्ति करके सबसे बड़ी गलती की थी। 

बदमिजाज रक्षामंत्री, जूनियर्स के सामने अफसरों को जलील करता था
बताया जाता है कि कृष्ण मेनन थे तो भारत के रक्षामंत्री लेकिन उन्हे विदेश यात्राओं और लक्झरी लाइफ का बड़ा शौक था। वो अक्सर विदेशों में घूमा करते थे। पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपने सभी मंत्रियों को पूरी आजादी दे रखी थी अत: मेनन पर कोई अंकुश नहीं था। सेना में गलत नियुक्तियों की शुरूआत मेनन ने ही की। एक चिड़चिड़े व्यक्ति के रूप में उन्हें सेना प्रमुखों को उनके जूनियरों के सामने अपमान करते मज़ा आता था। वे सैनिक नियुक्तियों और प्रोमोशंस में अपने चहेतों पर काफ़ी मेहरबान रहते थे। 

अड़ियल मंत्री की बेवकूफी का नमूना 
रक्षामंत्री कृष्ण मेनन को एक अड़ियल मंत्री माना जाता था। वो कितने बुद्धिहीन थे, इसका अंदाजा आप केवल इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने 1948 में पाकिस्तान से संधि हो जाने के बाद भारत की संसद में बयान दिया कि 'अब पाकिस्तान से दोस्ती हो गई है, चीन से पुरानी दोस्ती है अत: भारतीय सेना को भंग कर दिया जाना चाहिए। इस पर खर्चा करने की अब कोई जरूरत नहीं।' उनसे जब विपक्ष ने सवाल किया कि यदि कभी युद्ध के हालात बने तब क्या होगा तो मेनन ने जवाब दिया कि इसके लिए भारत की पुलिस ही काफी है। 

नेहरू को ब्लैकमेल किया
मेनन की एक बार चर्चित सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया के बीच बड़ी बकझक हुई। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि मेनन ने इस्तीफ़ा दे दिया। नेहरू ने उन्हे इस्तीफा वापस लेेने के लिए मनाया तो उन्होंने सशर्त इस्तीफा वापस लिया। उसके बाद सेना वास्तविक रूप में मेनन की अर्दली बन कर रह गई। उन्होंने अपनी सनक के कारण कौल को युद्ध कमांडर बना दिय और यही उनकी सबसे बड़ी मूखर्ता थी जो भारत की हार का कारण बना। हिमालय की ऊँचाइयों पर कौल मौसम का हमला ही सहन नहीं कर पाए और गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें दिल्ली लाया गया। मेनन ने आदेश दिया कि वे अपनी कमान बरकरार रखेंगे और दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग के अपने घर से वे युद्ध का संचालन करेंगे। युद्ध के हालात में इससे बड़ी मूर्खतापूर्ण निर्णय सारी दुनिया के इतिहास में नहीं मिलता। 

संसद में ही हो गया टकराव
19 नवंबर को दिल्ली आए अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात की। इनमें से एक ने ये पूछा कि क्या जनरल कौल को बंदी बना लिया गया है। इस पर राष्ट्रपति राधाकृष्णन का जवाब था- दुर्भाग्य से ये सच नहीं है। राष्ट्रपति महोदय के इस बयान के काफी गहरे अर्थ हैं। 

इधर सेना प्रमुख जनरल पीएन थापर इसके पूरी तरह खिलाफ थे, लेकिन वे मेनन से टकराव का रास्ता मोल लेने से डरते थे। उन्हे देश से ज्यादा अपनी कुर्सी प्यारी थी। ये जानते हुए कि कौल स्पष्ट रूप से कई मामलों में ग़लत थे, जनरल थापर उनके फ़ैसले को बदलने के लिए भी तैयार नहीं रहते थे। हालात यह बने कि मेनन और कौल पूरे देश में नफरत के पात्र बन चुके थे। सीमा पर जब युद्ध चल रहा था कांग्रेस पार्टी के ज़्यादातर लोगों और संसद ने अपना ज़्यादा समय और ऊर्जा आक्रमणकारियों को भगाने की बजाए मेनन को रक्षा मंत्रालय से हटाने में लगाया। नेहरू पर काफ़ी दबाव पड़ा और उन्होंने मेनन को सात नवंबर को हटा दिया। कौल के मामले में राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने जैसे सब कुछ कह दिया। राष्ट्रीय सुरक्षा पर फ़ैसला लेना इतना अव्यवस्थित था कि मेनन और कौल के अलावा सिर्फ़ तीन लोग विदेश सचिव एमजे देसाई, ख़ुफ़िया ज़ार बीएन मलिक और रक्षा मंत्रालय के शक्तिशाली संयुक्त सचिव एचसी सरीन की नीति बनाने में चलती थी। 

ख़ुफिया प्रमुख की नाकामी
चीन के हाथों भारत की हार में मलिक की भूमिका भी कम नहीं थी। मलिक भारत की पॉलिसी मैटर्स में हस्तक्षेप किया करते थे, जो एक खुफिया प्रमुख का काम नहीं था। अगर मलिक अपने काम पर ध्यान देते और ये पता लगाते कि चीन वास्तव में क्या कर रहा है, तो हम उस शर्मनाक और अपमानजनक स्थिति से बच सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हे पता ही नहीं था कि चीन युद्ध की तैयारी कर रहा है, जबकि चीन 1959 से ही हमलावर होता जा रहा था। मलिक तो कांग्रेसी नेताओं की तरह नेहरू की चीन से दोस्ती का गुणगान किया करते थे। उन्हे पूरा भरोसा था कि सीमा पर चीन के साथ जो झड़पें हो रहीं हैं वो बहुत छोटी हैं। उन्होंने 1959 से 1962 तक हुईं झड़पों और मौतों पर ध्यान ही नहीं दिया। 

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