फंसे हुए केजरीवाल ! लगे रहो

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत में चुनाव के सन्दर्भ में एक जुमला चलता है कि किसी एक चुनावी जीत या हार से किसी भी राजनीतिक दल के भविष्य का अंदाज नहीं लगाया जा सकता। यह बात सारे दलों पर एक समान लागू होती है, जिसमे आप पार्टी  भी जुड़ गई है। दिल्ली नगर निगम चुनावों में कांग्रेस भी उतनी ही बुरी तरह हारी है, जितनी कि आप। इसके बाबजूद, आम आदमी पार्टी की हार का अर्थ अलग है। स्थापित राजनीतिक दलों की तुलना में आम आदमी पार्टी काफी नई है और दो वर्ष पहले ही दिल्ली में जिस तरह की उम्मीदों पर सवार होकर वह सत्ता में आई थी, उससे  इतनी जल्दी ऐसी निराशा हैरत में डालने वाली है। फरवरी 2015 के विधानसभा चुनावों में दिल्ली में 54 प्रतिशत मत लेकर और 70 में से 67 सीटें जीतकर आम आदमी पार्टी ने सबको आश्चर्य में डाल दिया था। महज दो वर्ष में आम आदमी पार्टी के प्रति जिस तरह की निराशा अब दिल्ली वालों ने दिखाई है, वह भी आश्चर्य में डालने वाली है।

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे स्थापित दलों से निराश लोगों के लिए आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल 2010 में एक बदलाव और वैकल्पिक राजनीति का प्रतीक बनकर उभरे थे। 2013 और फिर 2015 में, जब लोगों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया, तब उन्हें भरोसा था कि केजरीवाल एक साफ-सुथरी, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था देने में कामयाब हो सकते हैं। यह भ्रम साबित हुआ।

रिश्वत के खिलाफ मुहीम से लोकप्रिय और वोट बटोरने वाली आप सरकार की छबि हमेशा केंद्र से लड़ने का बहाना ढूंढ़ने वाली सरकार की बनी। साथ ही यह भी सही है कि दिल्ली में सरकार चलाने के लिए केजरीवाल को केंद्र सरकार का जिस तरह का सहयोग मिलना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिला। सबसे गंभीर बात यह है कि केंद्र से संबंध सुधारने और दिल्ली को बेहतर प्रशासन देने के लिए दिल्ली सरकार ने अपनी ओर से क्या प्रयास किए? एक केंद्र शासित राज्य के तौर पर दिल्ली के क्या अधिकार हैं, यह सबको पता है। पहले की सरकारों ने भी इन्हीं नियम-कानूनों के तहत काम किया है। आप ने इससे उलटकाम किया। केजरीवाल अगर चाहते, तो व्यावहारिक रवैया अपनाकर जितना हो सकता था, दिल्ली के लिए केंद्र से मदद ले सकते थे। या कम से कम ऐसा करते हुए दिख सकते थे। केंद्र के साथ अपनी लड़ाई को राजनीतिक मुद्दा बनाकर और बार-बार यह बताकर कि उनके साथ काम करने वाले अधिकारियों को केंद्र प्रताड़ित कर रहा है, उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों में डर पैदा करने और उन्हें निरुत्साहित करने का ही काम किया। 

यह भी सत्य है किकोई भी राजनीतिक दल क्यों चाहेगा कि उसका विरोधी मजबूत हो या उसकी विश्वसनीयता बढ़े? नरेंद्र मोदी व अमित शाह की इस भाजपा से तो इस तरह की अपेक्षा करना और भी बेमानी है। केजरीवाल ने दिल्ली में गंभीरता से काम करने  की बजाय दूसरे राज्यों में जनाधार बढ़ाने के लिए दौरे किये। उन्होंने 2015 की जित का गलत अर्थ निकाला। और उसे लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीतकर आए नरेंद्र मोदी के खिलाफ जनादेश मान बैठे। इन नतीजो से यही धारणा मजबूत हुई है कि आप पार्टी और केजरीवाल आम राजनेताओं से बहुत अलग नहीं हैं। इसलिए विश्वसनीयता के संकट से निपटने के लिए उनके पास दिल्ली की समस्याओं को समझने और अपने वायदे पूरा करने के  कठिन संघर्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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