
महिला सुरक्षा कानून 2005 की धारा 2 (क्यू) कहती है कि प्रतिवादी का मतलब ऐसा कोई भी वयस्क पुरुष है जो पीड़ित व्यक्ति के घरेलू संबंध में रहा है और जिसके खिलाफ पीड़ित व्यक्ति ने घरेलू हिंसा के तहत राहत मांगी है। तो दो शब्दों के युग्म से न जाने कितने लोग कहां-कहां मुकदमों से बचे होंगे, कितने आरोपमुक्त हुए होंगे और पीड़ित महिला कानून के आइने में मुंह ताकती रह गई होगी। इस पृष्ठभूमि में देखें तो सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला ऐतिहासिक है| इससे कानून की परिधि विस्तारित हो गई है|गहराई से देखा जाए वयस्क पुरुष शब्द के रहने से इस कानून के उद्देश्य को ही धक्का पहुंचता था| कानून का मकसद ससुराल में होने वाले उत्पीड़न से किसी महिला को न्याय देना या उससे बचाना है। यह विचित्र है कि अगर प्रताड़ित करने वाली कोई महिला हुई तो उसका वह कृत्य अपराध की श्रेणी में नहीं आ सकता।
इसी तरह प्रताड़ना चाहे जितना क्रूर है, उसे करने वाला यदि अवयस्क है तो भी वह अपराधी नहीं हो सकता। वयस्क पुरुष शब्द जोड़ते समय चाहे जिन कारणों व परिस्थितियों का विचार किया गया हो, इसे कानून के उद्देश्य के मद्देनजर तार्किक नहीं कहा जा सकता। न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि यह संविधान के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है|इससे अपराध करने वाले व्यक्ति-व्यक्ति के बीच भेदभाव पैदा होता है। अगर कोई नाबालिग है तो उस पर मुकदमा नाबालिगों के कानून के अंदर अलग न्यायालय में तो चल सकता है, लेकिन मुकदमा चले ही न, यह तो न्याय नहीं हुआ।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए