महाभारत युद्ध की विभीषिका समाप्त हो चुकी थी, पर एक और बिदाई का क्षण उपस्थित था – यदुकुल भूषण श्री कृष्ण अपनी नर-लीला के निश्चित कालक्रमानुसार द्वारका लौट रहे थे. हर कोई भारी मन से उन्हें विदा कर रहा था. अंत में, निःशब्द खड़ी राजमाता कुंती की खामोशी को चीरते हुए भगवान कृष्ण ने पूछा, "बुआ, उपहार स्वरूप आपको जो उचित लगे, मुझसे निःसंकोच कहो."
अश्रुपूरित आँखों से केशव को निहारते हुए, राजमाता कुंती ने जो माँगा, वह सामान्य मानव की कल्पना से परे था. उन्होंने कहा,
विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जग्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥
श्रीमद्भागवतम् 01/08/25
"हे जगद्गुरु! हमारे जीवन में हमेशा विपत्तियाँ आती रहें, ताकि तुम्हारी याद हमेशा बनी रहे."
"हे गोविंद, ऐसा सुख कदापि नहीं चाहिए जिसमें तुम्हारी स्मृति न रहे, अपितु वह दुःख चाहिए जिसमें क्षणमात्र के लिए भी तुम्हारा स्मरण न भूलूँ." यह मांग हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर क्यों कोई दुःख चाहेगा?
सुख के माथे सिल पड़े, नाम हृदय से जाए।
बलिहारी वा दु:ख की जो पल-पल नाम गिनाय ॥
यह पंक्ति उस सुख को नकारती है जो ईश्वर के नाम की विस्मृति करा दे और उस दुःख को वरण करती है जो हर पल ईश्वर का स्मरण दिलाए.
दुःख: मन का जाग्रत करने वाला पहलू
यदि हम इस संवाद को वर्तमान मनोविज्ञान से जोड़कर देखें, तो यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य के मन की समस्याएँ ही उसे जागृत करती हैं. समस्याओं के समाधान खोजते समय, अनजाने ही हमारे व्यक्तित्व में एक अद्भुत निखार आता है. ठीक वैसे ही जैसे सोने में बिना 'खोट' (सुहागा) मिलाए आभूषण नहीं बनते, वैसे ही समस्याओं के समाधान बिना हमारे व्यक्तित्व का समग्र विकास असंभव है.
दुःख के समय में ही मानव के अंतर्निहित गुणों का विकास होता है. यह वह कसौटी है जो हमें अपने अपनो और गैरों से परिचित करवाती है. गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में कहा है:
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
यानी, धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी की असली पहचान विपत्ति के समय ही होती है. दुःख हमें यह भी सिखाता है कि कौन हमारे साथ खड़ा है और कौन नहीं.
दुःख: जीवन का सबसे बड़ा शिक्षक
निष्कर्षतः, हम कह सकते हैं कि दुःख विद्यालय के उस कठोर शिक्षक की वह कक्षा है जिसमें हम सभी बेमन से बैठते हैं, लेकिन सबसे अधिक ज्ञान और अनुभव उसी दौरान अर्जित करते हैं. यह हमें आत्मचिंतन का अवसर देता है, हमारी सहनशीलता को बढ़ाता है, और हमें जीवन की वास्तविकताओं से परिचित कराता है. दुःख केवल एक नकारात्मक अनुभव नहीं, बल्कि व्यक्तिगत विकास और आध्यात्मिक उन्नति का एक शक्तिशाली साधन भी है. यह हमें विनम्र बनाता है और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को पहचानने की क्षमता प्रदान करता है.
लेखक:जनकनंदनी शरण मिश्र, उमरिया (म.प्र.)