भारतीय संस्कृति में पाद-प्रक्षालन का औचित्य - The importance of Paad Prakshalan in Indian culture

Bhopal Samachar
भारतीय प्राचीन संस्कृति में पाद-प्रक्षालन की परंपरा आदिकाल से धार्मिक और उच्च सम्मान प्रदान करने के उद्देश्य से चली आ रही है। यह परंपरा पाद-प्रक्षालन किए जाने वाले व्यक्ति के प्रति श्रद्धा, प्रेम और प्रतिष्ठा का प्रतीक है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बालसखा सुदामा के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं नंगे पांव दौड़कर उनका स्वागत किया और उन्हें सिंहासन पर बिठाकर उनके चरण धोए। ऐसा उदाहरण शायद ही किसी अन्य धर्म या संस्कृति में मिले। सुदामा चरित में कवि नरोत्तमदास ने इस प्रसंग का मार्मिक वर्णन इस प्रकार किया है:
ऐसे बेहाल बिवाई सौं पग, कंटक जाल लगे पुनि जोये।
हाय महादुख पायो सखा तुम, आये न नैन किते दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करिके करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल से पग धोये।।

पाद-प्रक्षालन की परंपरा श्रीरामचरितमानस में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र देखने को मिलती है, जहां ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों के आगमन पर राजा उनके चरण धोते थे। उदाहरण के लिए, राजा प्रतापभानु ने ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित करने से पूर्व उनके चरण धोए:
भोजन कहुँ सब विप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए।।
— श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड 172.2

इसी प्रकार, महामुनि विश्वामित्र के आगमन पर राजा दशरथ ने न केवल ऋषि, बल्कि उनके साथ आए ब्राह्मणों को भी दंडवत कर सम्मान प्रदान किया, जो भारतीय समाज में अतिथि-सेवा का अनुपम उदाहरण है:
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहीं दूजा।।
बिबिध भाँति भोजन करवाया। मुनिबर हृदय हरष अति पावा।।
— श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड 206.2

श्रीराम के विवाह के अवसर पर राजा जनक ने अवधपति दशरथ, उनके साथ आए सभी ब्राह्मण-ऋषि, श्रीराम और उनके तीनों भाइयों के चरण स्वयं अपने हाथों से धोए:
सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढन्ह बैठाए।।
धाए जनक अवधपति चरना। सीलु स्नेह जाई नहिं बरना।।
बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।।
तीनहु भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।
— श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड 327.2-3

श्रीराम के विवाह के पश्चात गुरु और ब्राह्मणों के आगमन पर राजा दशरथ ने उनका पाद-प्रक्षालन कर स्वागत किया। यह हमारी संस्कृति का श्रेष्ठ उदाहरण है:
जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।
भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठी भाग्य बड़ जानी।।
पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवनाए।।
आदर दान प्रेम परितोपे। देत असीस चले मन तोषे।।
— श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड 351.2

वशिष्ठजी की आज्ञा का पालन राजा दशरथ ने लोक और वेद की विधि के अनुसार आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड़ देखकर सभी रानियां अपना सौभाग्य मानकर आदरपूर्वक उठीं। उन्होंने उनके चरण धोए, स्नान कराया और राजा ने भलीभांति पूजन कर भोजन करवाया। ऋषि-मुनि-ब्राह्मण आदर, दान और प्रेम से संतुष्ट होकर आशीर्वाद देकर प्रसन्न मन से विदा हुए।

पाद-प्रक्षालन केवल अतिथि स्वागत का साधन ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक भी है। महर्षि सुश्रुत के अनुसार:
“पाद-प्रक्षालनं पादमल रोगश्रमोपहम्, चक्षुः प्रसादनं वृष्यं रक्षोघ्नं प्रीतिवर्धनम्।”
अर्थात, चरण धोने से पैरों का मैल, रोग और थकान समाप्त होती है, नेत्रों को आनंद मिलता है, शक्ति प्राप्त होती है, और प्रेम बढ़ता है। इस प्रकार, भोजन से पूर्व पाद-प्रक्षालन श्रद्धा, सम्मान और विश्वास के साथ करना चाहिए। अतिथि के चरण धोने के पश्चात स्वयं भी चरण धोकर भोजन करना चाहिए। इससे दोनों पक्षों को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है।
श्रीरामचरितमानस में शबरी द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण के पाद-प्रक्षालन का प्रसंग भी भारतीय संस्कृति का उत्कृष्ट उदाहरण है:
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि-पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
— श्रीरामचरितमानस, अरण्यकाण्ड 33.5

शबरी प्रेम में मग्न हो गईं और उनके मुख से वचन नहीं निकले। वे बार-बार श्रीराम के चरण-कमलों में सिर नवाती रहीं। फिर उन्होंने आदरपूर्वक जल से दोनों भाइयों के चरण धोए और उन्हें सुंदर आसनों पर बिठाया।

आज भी हिंदू विवाह संस्कारों में वधू पक्ष द्वारा वर (दामाद) और वर पक्ष द्वारा वधू (कन्या) का पाद-प्रक्षालन किया जाता है। वर को श्रीविष्णु और वधू को श्रीलक्ष्मी का स्वरूप मानकर सम्मान दिया जाता है। मनुष्य के पांव के अंगूठे में विद्युत संप्रेक्षणीय ऊर्जा का वास होता है। यही कारण है कि हम वृद्धजनों, साधु-संतों और ब्राह्मणों के चरण स्पर्श करते हैं, जिससे उनकी सकारात्मक ऊर्जा और आशीर्वाद प्राप्त होता है, और नकारात्मकता समाप्त हो जाती है। इससे जीवन में सुख, शांति और उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।
हमें अपनी प्राचीन गौरवमयी संस्कृति की इस पाद-प्रक्षालन परंपरा को विरासत के रूप में संरक्षित करना चाहिए और विदेशी संस्कृति की चकाचौंध से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता ‘मानस शिरोमणि’
103-ए, व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
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