अधिक मास में वर्जित कार्य, अधिक मास का महत्व और धार्मिक दिशा-निर्देश - All About Adhik Mass

भारतीय संस्कृति में अधिक मास का धार्मिक रूप से अत्यधिक महत्व है। यह तीन वर्ष में एक बार आता है। इसके अनेक नाम हैं जैसे अधिकमास, मलमास, संसर्प, मलिम्लुच, पुरुषोत्तम मास आदि। प्रत्येक भाषा में इसे अलग-अलग नाम से जाना जाता है। 

अधिक मास को पुरुषोत्तम मास क्यों कहते हैं

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जिस प्रकार प्रत्येक मास का कोई न कोई स्वामी होता है किन्तु अधिकमास का कोई स्वामी नहीं है। अत: इस मास में शुभ-कार्य करना वर्जित है। विवाह, यज्ञोपवीत, गृह प्रवेश, मुंडन आदि कोई भी कार्य इस मास में नहीं होते हैं। पौराणिक ग्रन्थों की कथा के अनुसार एक बार अधिक मास भगवान विष्णु के पास गया और उसने उन्हें अपनी समस्या बतलाई। वह बहुत दु:खी था कि उसका कोई स्वामी नहीं है। विष्णु भगवान ने उसे दु:खी देखा तो उन्हेंं उस पर दया आ गई। उसी दिन से ही भगवान विष्णु ने उसे अपना नाम दे दिया और तभी से यह मास पुरुषोत्तम मास के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

यस्मिन् चान्द्रे न संक्रान्ति: सो
अधिमासो निहह्यते,
तत्र मंगल कार्याणि नैव कुर्यात् कदाचन
यस्मिन् मासे द्वि संक्रान्ति क्षय:
मास: स कथ्यते,
तस्मिन् शुभाणि कार्याणि यत्नत:
परिवर्जयेत।।
त्रयोदश: मास: इन्द्रस्य गृह: 

अर्थात् चन्द्र संक्रान्ति न होने पर इस माह में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित है। अधिक मास में श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु तथा भगवान शंकर जी की भक्ति भाव से पूजन अर्चन धार्मिक पुस्तक का पारायण तथा श्रीगीताजी के पन्द्रहवें अध्याय का वाचन किया जाता है। उन सबका सौ गुना फल प्राप्त होता है। अत: हमें अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार भगवान की आराधना करनी चाहिए। 

अधिक मास की पहचान क्या होती है

धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार दो अमावस्या के मध्य जब कोई संक्रान्ति नहीं होती है तो उस वर्ष अधिक मास होता है। विदेशों में तेरह की संख्या को शुभ फल दायी नहीं माना जाता है। हमारे यहाँ प्रदोष व्रत १३वीं तिथि को ही होता है, जो शिवजी को समर्पित है। इसे शुभ माना जाता है। हमारी भारतीय संस्कृति में अधिक मास आध्यात्मिक उन्नति के लिये व्रत उपवास, पूजा, पाठ उपासना तथा धार्मिक ग्रन्थों के पठन पाठन के लिये पूजनीय माना जाता है। इसमें विवाह मुंडन यज्ञोपवीत जैसे संस्कार करना वर्जित है। 

भारतीय संस्कृति में अधिक मास का प्रावधान क्यों है

सूर्यमास से वर्ष में ३६५ दिन तथा ६ घंटे होते हैं और चन्द्र मास ३५४ दिन का वर्ष होता है। यह ग्यारह दिन का अन्तर तीन वर्ष में लगभग एक माह का होता। अत: प्रत्येक तीसरे वर्ष में अधिक मास हिन्दू कैलेंडर में समायोजित किया जाता है, जिसे अलग-अलग नामों से उल्लेखित किया जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक चौथे वर्ष को लीप ईयर नाम दिया गया है। प्रत्येक चौथे वर्ष में फरवरी माह 29 दिन का होता है। 

पद्मपुराण के अनुसार-
मासा सर्वे द्विजश्रेष्ठ सूर्यदेवस्य संक्रमा:।
अधिमासस्त्व संक्रान्तिर्मासोऽसौ शरणं गत:।।
मम प्रियतमोऽत्यन्तं मासोऽयं पुरुषोत्तम:।
अस्याहं सततं विप्र स्वामित्वे पर्यवस्थित:।।
(पद्मपुराण, पुरुषोत्तममास महात्म १७/१४-१५)
अर्थात हे द्विजश्रेष्ठ सभी माह सूर्यदेव की संक्रान्ति के कारण होते हैं। तभी से पुरुषोत्तम मास मुझे अत्यधिक प्रिय है। हे विप्र मैं सदैव इस पुरुषोत्तम मास को अधिक प्रेम करता हूँ। सम्मान देता हूँ। मैं पुरुषोत्तम मास के स्वामी के रूप में प्रतिष्ठित हूँ।

शिव पुराण कहता है कि -
''त्रयोदशो मास इन्द्रस्य गृह:।
(शिव पुराण २/५/२/५२)
एक लाख गायत्री मंत्र का जो फल प्राप्त होता है उतना इस पुरुषोत्तम मास में एक मंत्र जपने से हो जाता है। पांडवों ने पुरुषोत्तम मास में धर्म तप का अनुष्ठान कर परमसिद्धि प्राप्त की थी। इस माह में पूजा, दीपक दान, ध्वजा दान अनुष्ठान आदि का बड़ा महत्व है। मान्यता है कि इससे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।

पुरुषोत्तम मास में किसकी पूजा करें क्या फल प्राप्त होता है

इस मास में भगवान विष्णु के पूजन का विशेष महत्व है क्योंकि वे इस मास के स्वामी हैं। शिव पूजन का भी इस मास में महत्व बतलाया गया है। भगवान विष्णु का निवास पीपल के पेड़ में है। अधिक मास में नियमित रूप से पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक लगाना श्रेयस्कर है। गाय के दूध से अभिषेक भी करना चाहिए। पेड़ में प्रतिदिन जल का सिंचन करना चाहिये। अधिक मास में दो एकादशी बढ़ जाती है। इन एकादशियों के नाम परमा तथा पद्मिनी हैं। पूर्णिमा भी दो होती हैं। धार्मिक तथा आध्यात्मिक उन्नति तथा शारीरिक, मानसिक विकास करने का पुरुषोत्तम मास का समय श्रेष्ठ दर्शाया गया है। धैर्य तथा ईमानदारी का जीवन जीने की कला उपासना से ही जीवन में प्राप्त होती है। 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य में कहा गया है-
द्वादशक्षरमंत्रोऽयं यो जपेत् कृष्ण सन्निधौ।
दशवारमपि ब्रह्मन् स कोटिफल मश्नुते।।
(पुरुषोत्तम मास महात्म्य १७/२३)
अर्थात् - इस मास में गीता पाठ पंचाक्षर शिवमंत्र, अष्टाक्षर नारायण मन्त्र, द्वारदशाक्षर वासुदेवमंत्र आदि के जप का लाख गुना, करोड़ गुना या अनन्त फल होता है। 

ज्योतिष शास्त्रियों के अनुसार अधिक मास में राशि के अनुसार दान करना चाहिए। यह मास भगवान पुरुषोत्तम को समर्पित है। भक्त गण को इस मास में भगवान विष्णु का पूजन अर्चन करना चाहिए। यदि संभव हो तो समय निकालकर श्रीविष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए। यदि समयाभाव हो तो स्मार्ट फोन पर या अन्य डिजिटल माध्यम पर इसके पाठ का श्रवण करना चाहिए। शिव महिम्र स्तोत्र, शिवमानस पूजा आदि का पाठ करना चाहिए। एक गृहस्थ यदि अपने घर में इन पाठों का वाचन श्रवण करेंगे तो नई पीढ़ी के बालकों की रुचि भी जाग्रत होगी और उनमें भक्ति भावना का प्रादुर्भाव होगा। भारतीय संस्कृति से वे परिचित होंगे और प्रतिदिन पाठ का श्रवण करने से उन्हें श्लोक शनै: शनै: कण्ठस्थ भी हो जाएंगे। 

निम्रलिखित श्लोक यदि बच्चों को कंठस्थ करवाएँगे तो उन्हें वे सर्वदा स्मरण रहेंगे- (शिवपूजन के लिये)
ध्याये नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारूचन्द्रावतंसं,
रत्नैकल्पौज्वलागं परशुमृगवरा भीति हस्तं प्रसन्नं।
पद्मासीनं समस्तास्तुतममरगणै व्याघ्र कृत्तिं वसानं,
विश्वाद्यं विश्ववद्यं निखिल भयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रं।।
अर्थात् - त्रिनेत्र धारी, चाँदी की तरह तेजोमयी चंद्र को सिर पर धारण करने वाले, जिनके अंग-अंग रत्न आभूषणों से दमक रहे हैं। चार हाथों में परशु, मृग, वर और अभय मुद्रा है। मुख मण्डल पर आनन्द प्रकट होता है, पद्मासन पर विराजित हैं, सारे देव, जिनकी वन्दता करते हैं, बाघ की खाल धारण करने वाले, ऐसे सृष्टि के मूल, रचनाकार महेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ।

तथा विष्णु पूजन के लिये-
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभागं।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिर्भि ध्यानगम्यं,
वन्दे विष्णुं भवभय हरं सर्वलोकैकनाथं।।
अर्थात् - हे समस्त देवों के देव, जिनकी नाभि में पद्म है, शान्त आकार के, नाग पर शयन करने वाले विश्व के आधार, आकाश जैसे विशाल, मेघों से रंग वाले लक्ष्मी के पति कमल से नयन वाले, योगियों के समान ध्यान मगन, समस्त लोकों के नाथ, सब का संसार भय नाश करने वाले विष्णु आपका हम वन्दन करते हैं।
पुरुषोत्तम मास में देश के विद्वान ख्याति प्राप्त कथाकार विभिन्न स्थानों पर भागवत कथा, रामायणकथा, शिव-पुराण कथा आदि का आयोजन करते हैं।

लाखों की संख्या में श्रोता गण कथा श्रवण के लिये दूरस्थ स्थानों से आते हैं। कथा श्रवण के साथ ही वहाँ चल रहे भंडारे में महाप्रसादी ग्रहण करते है और अनेक कष्टों के झेलते हुए प्रवचन सुनकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति और जनता की धार्मिक आस्था का अनोखे सम्मिश्रण की छटा यहाँ पर दृष्टिगोचर होती है।

मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में चौरासी महादेवों के मंदिर हैं। ये अति प्राचीन हैं। ये चौरासी महादेव के मंदिर केवल उज्जैन में ही हैं। श्रावण मास में तथा अधिक मास होने पर भक्तगण इनसे आशीर्वाद ग्रहण करने के लिये विभिन्न स्थानों से आकर इनके दर्शनों का लाभ उठाते हैं। प्राचीन मान्यता के अनुसार दूषण नामक एक राक्षस था। वह बहुत अधिक शक्तिशाली था। राक्षस को यह वरदान था कि जिस स्थान पर उसका रक्त गिरेगा, वहाँ वह चौरासी रूप धारण कर लेगा। शिव पुराण के अनुसार शंकर भगवान की एक बहिन थी, जिसका नाम श्रीप्रिया था, जिसे आधुनिक समय में क्षिप्रा नदी के नाम से जाना जाता है। 

शंकर भगवान ने कहा था कि यदि श्रीप्रिया जलप्रवाह के रूप में प्रकट हो तो जैसे ही दूषण राक्षस को मैं मारूँगा तो उसका रक्त नदी में घुल जाएगा और फिर उसका जन्म नहीं होगा और वह चौरासी रूप में विभक्त नहीं होगा। संयोग से नदी क्षिप्रा को आने में विलम्ब हो गया और राक्षस ने चौरासी रूप धारण कर लिए। बहिन क्षिप्रा ने जब यह देखा तो उसने शंकरजी पर जल की वर्षा कर दी, जिससे शंकर जी चौरासी टुकड़ों में विभक्त हो गये और उन्होंने दूषण के चौरासी टुकड़ों का संहार कर दिया। ये ही शंकरजी के चौरासी टुकड़े उज्जैन नगर में तथा नगर के चारों ओर चौरासी महादेव के रूप में विराजमान हैं। 

श्रद्धालु यहाँ पर दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। लेख के विस्तारभय से मैं यहाँ चौरासी महादेवों की सूची नहीं दे रही हूँ। हरसिद्धि मंदिर के पार्श्व में संतोषी माता मंदिर प्रांगण में स्थित श्री अगस्तेश्वर महादेव मंदिर से चौरासी महादेव की यात्रा का प्रारंभ किया जाता है और यहाँ पर पुन: दर्शन लाभ लेकर यात्रा का समापन किया जाता है। यहीं यात्रा का अन्तिम पड़ाव है। ऐसी मान्यता है कि मानव यदि इनके सम्पूर्ण दर्शन श्रद्धा भक्ति से करता है तो उसे चौरासी लाख योनियों से मुक्ति प्राप्त होती है। उज्जैनवासी परस सौभाग्यशाली हैं कि पुरुषोत्तम मास में उन्हें चौरासी महादेव सहज उपलब्ध हैं। 

भारत की सनातन परम्परा प्राचीन है। हमारा ज्योतिष-शास्त्र विज्ञान सम्मत है। सूर्यमास तथा चन्द्रमास के अनुसार पृथ्वी के घूर्णन की गति में प्रति वर्ष ग्यारह दिन का अन्तर होता है। तीन वर्ष में यह अन्तर लगभग एक मास का हो जाता है। सनातन धर्म में खगोल वैज्ञानिकों, गणितज्ञों तथा ज्योतिषियों ने प्रत्येक तीन वर्ष में एक माह बढ़ाकर अधिक मास की ज्योतिषीय परम्परा का प्रणयन किया है। चैत्र माह से लेकर फाल्गुन माह तक कोई भी एक माह प्रत्येक तीन वर्ष में अधिक मास के रूप में ज्योतिष शास्त्र के आधार से निर्धारित है। प्रत्येक माह किसी न किसी देवता को समर्पित है और उसी देवता के पूजन का विशेष महत्व है। अधिक मास के स्वामी स्वयं भगवान विष्णु है। इसीलिये अधिक मास पुरुषोत्तम मास के रूप में भी जाना जाता है। 
लेखक:- डॉ. शारदा मेहता, सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (मध्य प्रदेश)

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