बहुत से मामले कोर्ट में हमे देखने को मिलते हैं जो वर्षों से कभी गवाहों की बजाय से, कभी वादी के साक्ष्य की देरी से, कभी प्रतिवादी या प्रतिवादियों की देरी से या कभी वादी या प्रतिवादी द्वारा वकीलों से अभद्र भाषा के उपयोग से लम्बित होते हैं। जिनका निर्णय समय पर नहीं हो पाता है। जिससे किसी एक पक्षकार को प्रभावित होना पडता है एवं इसमे न्यायालय का समय बर्बाद होता है। इन्ही जानबूझकर कर देरी करने वाले पक्षकारों के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता,1976 में संशोधन उपरान्त एक नई धारा जोड़ी गई जानिए क्या है वह?
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 की धारा 35(ख) की परिभाषा
न्यायालय ऐसे पक्षकारों पर प्रतिकारात्मक खर्च अधिरोपित कर सकता है जो वाद या मामले की सुनवाई के समय किसी अवस्था में जानबूझकर कर बिलम्ब करता है। अगर प्रभावित पक्षकार एक से अधिक है तब न्यायालय के विवेक पर है वह प्रभावित पक्षकारों को किस प्रकार से विलम्ब कारित खर्च दिलवाएगा।
संबंधित निर्णय- इला विपिन चन्द पण्डया बनाम स्मिता अम्बा लाल पटेल
उक्त मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ वादी या प्रतिवादी गुणा-गुण पर बहस नहीं करता है, न्यायालय के मना करने पर भी वकीलों के बारे में गंदी भाषा का प्रयोग करता है एवं पक्षकार द्वारा उठाये गए मुद्दों पर विचार नहीं करता है या अनदेखा करता है तब वहां न्यायालय द्वारा निवारक खर्चा लगया जा सकता है। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक ✍️बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं विधिक सलाहकार होशंगाबाद) 9827737665
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