भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 498 (क) कहते हैं विवाहित महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक हथियार है। बहुत से कानूनी जानकार इस धारा को दहेज प्रथा की धारा बताते हैं और पुलिस थाने में भी जब दहेज का मामला होता है तब इसी धारा के अंतर्गत मामला दर्ज होता है।
यह भी कहा जाता हैं कि विवाह के सात साल पूरे हो जाने के बाद पुलिस अधिकारी इस धारा के अंतर्गत मामला दर्ज नहीं करते हैं। कुछ अधिकारी तो बोल देते हैं कि अब यह धारा लागू नहीं होगी इसकी परिसीमा समाप्त हो गई है। आज के लेख में हम सभी सवालों के जबाब जानते हैं।
1. दहेज निषेध अधिनियम,1961 की धारा 4 यह कहती है की अगर कोई व्यक्ति जो शादी से पहले या विवाह के समय दहेज को मांग करता है या लेता है तब उसे दण्डित किया जाएगा।
2. भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 498 (क) में कही 'दहेज मांग, शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, इसमे क्रूरता, प्रताड़ना, मारपीट आदि शब्दों को बताया गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि महिला को दहेज के लिए ही प्रताड़ित किया है हो। इस धारा के अंतर्गत शादी के बाद महिला को किसी भी प्रकार की संपत्ति या वस्तु की मांग हो सकती है या कोई मानसिक क्रूरता भी हो सकती है जैसे पति या नातेदार द्वारा महिला को ताने मारना आदि।
3. भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 304 (ख) दहेज़ मृत्यु को परिभाषित करती है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि किसी महिला की मृत्यु (अप्राकृतिक तरीके से) शादी के सात वर्ष के भीतर हो जाती है तब न्यायालय यह अनुमान लगा सकता है की महिला की मृत्यु या हत्या या महिला ने आत्महत्या पति, नातेदार की क्रूरता या प्रताड़ना के कारण की होगी इसे दहेज मृत्यु भी कहा जा सकता है।
अब आपको समझ आ ही गया होगा कि क्रूरता, दहेज मांग, दहेज मृत्यु तीनों अपराध अलग-अलग हैं लेकिन सवाल यह था की भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 498(क) की शिकायत महिला क्या सात वर्ष के बाद नहीं कर सकती है। जानते हैं इसका जबाब सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट द्वारा।
1. बैका राधा मनोहारी बनाम बैंका व्यंकट रेड्डी
उक्त वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि क्रूरता से सम्बंधित वैवाहिक अपराध अविरत स्वरूप के होने के कारण इनके प्रति दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 468 के परिसीमा संबंधी बंधन न्याय-हित में लागू नहीं होते हैं। न्यायालय ने अभिकथन किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 के परिसीमा संबंधी उपबंधों का मूल उद्देश्य यह है कि अभियोजन या परिवाद लाये जाने पर युक्तियुक्त अविध सीमा का बंधन लगाया जाए ताकि लोग उद्देगकारी मुकदमेबाजी की ओर प्रवृत्त न हो।
लेकिन यह बंधन ऐसे विवाह संबंधी अपराधों के प्रति लागू नहीं होता है जिसमें आरोपी के विरुद्ध क्रूरता, निर्दयता, प्रताड़ना, मारपीट आदि का आरोप है क्योंकि यह अनुभव किया गया है कि ऐसा दुर्व्यवहार व्यक्ति द्वारा बार-बार किया जाता है। अतः ऐसे अपराध को निरंतर जारी रहने वाला अपराध माना जाना न्यायोचित है।
अतः उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 498 (क) के अधीन पति या उसके नातेदार (जेठ-जिठानी, सास-ससुर,देवर-देवरानी, ननद आदि) या रिश्तेदार द्वारा पत्नी के प्रति क्रूरता के अपराध के अभियोजन हेतु सीआरपीसी की धारा 468 की अपराध परिसीमा के नियम लागू नहीं होते हैं पीड़ित महिला कभी भी इसकी शिकायत दर्ज करवा सकती है।
2. अरुण व्यास बनाम सरिता व्यास
उक्त मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि धारा 498(क) में क्रूरता की परिभाषा स्पष्ट है एवं इसे निरंतर जारी रहने वाला अपराध माना गया है। जब पत्नी के साथ उसका पति या पत्नी के नातेदार क्रूरता करता है या क्रूरता का व्यवहार करता है तब अपराध दर्ज कराने की समय सीमा उसी दिन से प्रारंभ मानी जाएगी।
नोट:- बहुत सी महिलाओं के साथ ससुराल वाले शादी के सात साल बीत जाने के बाद भी क्रूरता का व्यवहार करते हैं, जब वह थाने में एफआईआर दर्ज करवाने जाती है तब पुलिस अधिकारी धारा 498(क) के अंतर्गत मामला दर्ज नहीं करते हैं,पीड़ित महिला इसकी शिकायत डारेक्ट न्यायालय में परिवाद दायर कर सकती है। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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