वैसे तो इंदौर शहर का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन यदि राजनीति की बात करें तो इंदौर को बाजीराव पेशवा के प्रतिनिधि एवं सेनानायक मल्हार राव होलकर से जाना जाता है। देवी अहिल्याबाई ने इंदौर में विकास और विश्वास की राजनीति को स्थापित किया। सवाल यह है कि मल्हारराव से लेकर देवी अहिल्याबाई तक इंदौर होलकर का है तो फिर सिंधिया राजवंश के लोग इंदौर को अपना क्यों मानते हैं। राजनीतिक रूप से सक्रिय क्यों रहते हैं।
आजादी के बाद भारत में तो लोकतंत्र आ गया लेकिन कांग्रेस पार्टी में भारत का नक्शा बिल्कुल वैसा ही था और आज भी है। पूरा देश रियासतों में बटा हुआ है। मध्यप्रदेश में ग्वालियर और इंदौर तो सबसे बड़ी रियासतें थी। आजादी के बाद होलकर राजपरिवार राजनीति में नहीं आया लेकिन ग्वालियर का सिंधिया राजवंश पूरी ताकत के साथ राजनीति में शामिल हुआ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मध्य भारत राज्य की स्थापना की जिसमें 25 रियासतों का विलय किया गया। इसी लिस्ट में इंदौर रियासत का नाम भी था। तखतमल जैन मध्य भारत राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे लेकिन ग्वालियर राजवंश के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया को राजप्रमुख बनाया गया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए। ग्वालियर में भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
इसी दौरान तय किया गया कि मध्य भारत राज्य की राजधानी 6 महीने 15 दिन ग्वालियर रहेगा और शेष 5 महीने 15 दिन इंदौर। इस प्रकार राजनीतिक रूप से इंदौर रियासत सिंधिया राजवंश के अधिकार क्षेत्र में आ गई। जीवाजी राव सिंधिया से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक, सभी नेता अपनी-अपनी पार्टियों में उसी अधिकार की मांग करते रहे हैं जो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जीवाजी राव सिंधिया को दिया था। मुख्यमंत्री कोई भी बने लेकिन राजप्रमुख सिंधिया होगा। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article
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