इसे सिर्फ गैर जिम्मेदारी के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता | इस गैर जिम्मेदारी का नतीजा है गणतंत्र दिवस के दिन भारत के गणतंत्र पर लगे दाग को अब खून, अपमान और के साथ धोने की कोशिश | किसानों ने दिल्ली की सीमा पर लगाए गए तंबुओं को हटाना शुरू कर दिया था। ऐसा लगने लगा था कि मामला संअब आसानी से निपट जायेगा और सरकार रास्ता खुलवाने में अब सफल हो जाएगी, मगर सत्तारूढ़ दल के नेताओं और उनके कार्यकर्ताओं ने अति उत्साह में गलती कर दी और निरंतर कर रहे हैं |परिणाम, जो तंबू खुद-ब-खुद उखड़ रहे थे, वे फिर से जम गए। पूरे देश में हो रही ऍफ़ आई आर कुछ नये समीकरण पैदा करेंगी |
किसान बहुत ही भावुक लोगों की जमात है। कृषक समुदायों में तमाम तरह के आपसी विरोध हों, लेकिन जब किसान देखते हैं कि कोई उनके हित के लिए लड़ रहा है और वह इतना अकेला हो गया है कि उसकी आंखों से आंसू निकल रहे हैं, तब सब एक हो जाते हैं । गाजीपुर बॉर्डर पर भी यही सब तो हुआ। किसान नेता राकेश टिकैत के आंसू ने आंदोलनकारियों को फिर से एकजुट कर दिया, और खाली होती सड़कें दोबारा प्रदर्शनकारियों से भर गईं। प्रश्न अब भी वही का वही है कि आखिर इस आंदोलन का अंत क्या है? बातचीत ही इस मुद्दे का एकमात्र हल है। वैसे अब तक सरकार के प्रतिनिधि और किसान नेता ११ बार वार्ता की मेज पर आमने-सामने आ चुके हैं। सरकार इस पर सहमत हो गई है कि वह अगले डेढ़ साल तक नए कृषि कानूनों को लागू नहीं करेगी और कमेटी इन पर विचार करेगी, जिसमें किसानों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को भी पर्याप्त जगह दी जाएगी। वैसे हर आंदोलन का उद्देश्य दबाव बनाना होता है। और सरकार इतने दबाव में तो आ ही गई है कि उसने फिलहाल इन कानूनों से दूरी बरतना उचित समझा है। मौजूदा परिस्थिति में यही सबसे अच्छा समाधान है कि किसान नेताओं को इस पर तैयार हो जाना चाहिए।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एक जरूरी मुद्दा है। सरकार ने अभी इसे जारी रखने की बात कही है। मगर इसकी गारंटी से खरीदार व उपभोक्ताओं पर क्या असर पड़ेगा, इसका भी अध्ययन जरूर होना चाहिए। इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर पड़ने वाले प्रभाव का भी आकलन आवश्यक है। एमएसपी में संशोधन हो या नया कानून बने, इन सबकी एक तयशुदा प्रक्रिया होती है।
इस आंदोलन के आर्थिक असर से सरकार भी हलकान होगी। माना जा रहा है कि दिल्ली की सीमाबंदी से देश की अर्थव्यवस्था को हर दिन ३५०० करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है। इस नुकसान की वजहें हैं, माल की ढुलाई में देरी, कर की वसूली न होना, जीएसटी इकट्ठा न होना, औद्योगिक क्षेत्रों की गतिविधियों का लगभग थम जाना आदि।
आज सरकार पर दोतरफा दबाव है। उसे आंदोलित किसानों को भी मनाना है और अपनी आर्थिक सेहत भी सुधारनी है। दबाव किसान नेताओं पर भी होगा। लाल किले की घटना से इस आंदोलन पर एक कलंक तो लग ही गया है। किसान नेता भी यह सोचने को मजबूर हुए होंगे कि भीड़ उतनी ही इकट्ठा की जाए कि वह अनुशासित रहे। उन्होंने आत्ममंथन जरूर किया होगा कि चूक कहां हो गई? अब वे भी अपना चेहरा बचाने की कोशिशों में हैं। पिछले दो दिनों से जिस तरह उत्तेजक बातें बंद हैं, यदि ऐसा पहले हुआ होता, तो 26 जनवरी की घटना शायद ही होती।
हर आंदोलन की शुरुआत में ऊर्जा होती है, लेकिन वक्त बीतने के साथ-साथ उसमें हताशा का भाव आ जाता है और ऊर्जा कमजोर पड़ने लगती है। आवेश में ही सही, प्रदर्शनकारियों ने गलती तो कर ही दी। लिहाजा, अब इस आंदोलन का पटाक्षेप हो जाना चाहिए। उचित समाधान तो यही है कि वार्ता जहां ठहर गई है, उसको आगे बढ़ाया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने भी विशेषज्ञ समिति बनाई है। किसान नेताओं को इसके सामने भी पेश होना चाहिए। इन कानूनों को लागू न करने की एक समय-सीमा देकर आंदोलन का सम्मानजनक अंत किया जा सकता है। उन्हें आंदोलन को परिणाम की तरफ ले जाना चाहिए, न कि अकाल मौत की तरफ। इसमें गैर-राजनीतिक विचारों की भी सख्त जरूरत होगी। चर्चा किसानों की दयनीय स्थिति के बारे में भी होनी चाहिए। यह जरूरी है कि यह बिरादरी न सिर्फ खुशहाल बने, बल्कि सामाजिक ताना-बाना भी मजबूत बना रहे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।