ये है मेरा भारत [इण्डिया] - Pratidin

26 जनवरी को लाल किले में जो कुछ घटा उसने फिर सवाल खड़ा किया है |मातृभूमि क्या है? जवाब है, यह एक भूमि का टुकड़ा नहीं है, न वाणी का एक अलंकार है और न मस्तिष्क की कल्पना की एक उड़ान मात्र है। वह एक महान शक्ति है, जिसका निर्माण उन करोड़ों शक्तियों को मिलाकर हुआ है, जो एक राष्ट्र का निर्माण करते हैं। अब जो भी घट रहा है वो राष्ट्र को पुनर्परिभाषित करेगा | राष्ट्र का पुनर्जन्म खे तो भी गलत नहीं होगा ।

तमाम देशभक्तों का सपना आज़ाद राष्ट्र था, इन विभूतियों ने अपना सर्वस्व देश के नाम पर कुर्बान कर दिया था। हमारे संविधान निर्माताओं के सपने भी इससे मेल खाते थे, जिन्होंने भारत को एक प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य का रूप दिया। इसकी परिकल्पना भी महज स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नहीं की गयी थी। दरअसल, यह ऐसा सपना था जो हजारों वर्षों से हमारे भीतर सोया पड़ा था। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले एक हजार साल से भारत अनेक तरह की रूढ़ियों और अंधविश्वासों में फंसा हुआ था, राजनीतिक दृष्टि से भी वह आधुनिक शब्दावली में एक राष्ट्र नहीं था, लेकिन यह भी सच है कि वह हमारे सपनों में था, हमारे चिंतन में था, हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक विश्वासों में था। १३०० साल पहले आदि शंकराचार्य ने इस भू-भाग के चार कोनों में चार धाम स्थापित कर एक राष्ट्र का ब्ल्यू प्रिंट बनाया था |

वैसे किसी भी राष्ट्र के जीवन में सात दशक का समय बहुत नहीं होता। बहुत तेजी से भागते वैश्विक समय के लिहाज से यह समय बहुत कम भी नहीं है। आज भारत का एक महाशक्ति के रूप में उभरना कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। वह भी तब जबकि आरम्भ के अनेक दशक हम अंग्रेज़ी साम्राज्य के व्यामोह में ही फंसे रहे। उन्हीं के बताये रास्ते पर चल कर भी हमारी यात्रा यहां तक पहुंची है तो इस अवसर पर दुखी होने से कोई लाभ नहीं है। हमारी प्रगति धीमी जरूर है, पर निराश करने वाली नहीं है ।

वर्ष १९९० के बाद एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि कहीं नई आर्थिक नीति की आंधी में देश का दीन-हीन वर्ग दम न तोड़ दे लेकिन सरकार द्वारा शुरू की गई डेढ़ सौ से अधिक योजनाओं का लाभ सीधे गरीब वर्ग को मिलने से अब यह उम्मीद जगी है कि पूंजीवाद में भी समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति की सुधि ली जा सकती है।इन व्यवस्थागत सुधारों के अतिरिक्त देश में एक मजबूत मध्यवर्ग पैदा हुआ है। देश के ६५ प्रतिशत युवा नए जोश में हैं। यह सही है कि पिछले बीस वर्षों में अमीर वर्ग भी बढ़ा है, लेकिन विशाल मध्यवर्ग की वजह से आज भारत भूमि की तरफ दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं।

आज विश्व में शीर्ष स्थान रखने वाले टॉमस फ्राइडमैन जैसे विचारक और पॉल क्रुगमन जैसे अर्थशास्त्री आज यह मानते हैं कि अब दुनिया गोल नहीं रही। आज सिलिकॉन वैली तक भारत अपने पंख पसार रहा है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते हैं कि भारत के युवाओं में एक नया जोश दिखाई पड़ता है। वे आत्मविश्वास से लबरेज़ नई उड़ान भरने को तत्पर दिखाई देते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब एक बार उन्होंने अमेरिकी युवाओं को चेतावनी देते हुए कहा था, तैयार हो जाओ, वरना बेंगलुरु से युवा आ जायेंगे। इसलिए दुनिया की कोई भी ताकत हो, भारत को नज़रअंदाज नहीं कर सकती।

देश की सीमाए हमेशा से असुरक्षित रही हैं। बाहरी आक्रान्ता सदैव इसकी खुशहाली देखकर ललचाते रहे हैं। आज भी पाकिस्तान और चीन हमारी सीमाओं पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। पिछले चालीस साल से कश्मीर में भारत एक छद्म युद्ध लड़ रहा है। हमारी सेनायें जितने ही आतंकवादियों का खात्मा करती हैं, उतने ही सीमा पार से नए आ जाते हैं। पुरानी सरकारों की ढील और ढुलमुल नीतियों की वजह से भारत को एक सॉफ्ट स्टेट मानकर वे इस तरह का युद्ध चलाये हुए थे। कश्मीर समस्या को देखकर लगता ही नहीं था कि वह कभी हल भी होगी। लेकिन जैसे ही भारत ने अपना सॉफ्ट चोला उतार फेंका, वैसे ही अमन कि एक नई राह खुल गयी। चाहे सर्जिकल स्ट्राइक हो, या एयर स्ट्राइक गलवान घाटी की झड़प हो या डोकलाम का गतिरोध, भारत ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया। नतीजा यह है कि दुश्मन देश हतप्रभ हैं और डरे हुए हैं कि भारत न जाने कब हमला कर दे। यह स्थिति एक दिन में नहीं बन गई।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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