किसान आन्दोलन: हर 16 घंटे में एक मौत - Pratidin

जिस अस्पष्ट कानून के कारण उपजे “किसान आंदोलन के दौरान अब तक 60 किसानों की जान जा चुकी है। औसतन हर 16 घंटे में एक किसान मर रहा है। मध्यप्रदेश में उस कानूनी घालमेल ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है।” मध्य प्रदेश में एक कॉरपोरेट कंपनी की सहयोगी कम्पनी ने 22 किसानों के साथ करार का दो करोड़ का जो चेक दिया, वह बाउंस हो गया। ऐसे में केन्द्र सरकार से पूछा ही जाना चाहिए कि क्या वह इसकी गारंटी दे सकती है कि इन कानूनों के रहते किसानों से ऐसी ठगी आगे नहीं होगी? अगर नहीं तो वह किसानों से उनका रहा-सहा सुरक्षा चक्र भी क्यों छीन रही है? सरकार माने या न माने ऐसे असुरक्षित कानून बनाने की जवाबदेही तो सरकार ही बनती है। 

सरकार की मानें इस बार वार्ता में उसने इलेक्ट्रीसिटी अमेंडमेंट बिल और पराली जलाने पर भारी जुर्माने के कानून को लेकर किसानों के असंतोष का शमन कर उनके साथ सहमति बनाने का आधा रास्ता तय कर लिया है। इसके विपरीत कई किसान नेताओं का कहना है कि अभी तो विवाद के हाथी की पूंछ भर बाहर निकली है और उसके भीमकाय शरीर का निकलना बाकी है।सच में हाथी बकाया है और हृष्ट पुष्ट भी है। 

सही मायने में सरकार अब तक जिसे पचास प्रतिशत सहमति बता रही है, उसकी असली परीक्षा तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने व न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने के मुद्दों पर बाकोई निर्णय है। अभी सरकार न ताे न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाने को राजी दिखाई दे रही है, न उक्त कृषि कानूनों को वापस लेने को ही, जबकि किसानों का कहना है कि वे उन्हें वापस लेने के तरीकों पर ही बात करेंगे और महज कुछ संशोधनों के सरकार के प्रस्ताव को मानकर अपना आन्दोलन खत्म नहीं करेंगे। साफ है कि अभी दोनों पक्षों को लम्बा रास्ता तय करना है। 

अभी तो इतनी अच्छी बात तो हुई ही है कि सरकार ने थोड़ा लचीला रुख प्रदर्शित किया है, जिससे दोनों पक्षों के बीच विभिन्न कारणों से जमी आ रही अविश्वास की बर्फ थोड़ी पिघली है। वार्ता के इससे पहले के दौर में खिन्न किसानों ने सरकार का भोजन स्वीकार करने से साफ-साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इस बार उन्होंने न सिर्फ अपने भोजन में सरकारी वार्ताकारों को शामिल किया, बल्कि खुद भी सरकार की चाय पी। इतना ही नहीं, अपना प्रस्तावित ट्रैक्टर मार्च भी वार्ता के अगले दौर तक के लिए स्थगित कर दिया है। 

वार्ता के अगले सोपान लिए किसानों ने अपना एजेंडा पहले ही तय कर दिया था ताकि सरकार के लिए बहुत इधर-उधर करके उसे निरर्थक करने की गुंजाइश बचे ही नहीं। उनके एजेंडे के अनुसार सरकार पर्यावरण सम्बन्धी कानून औऱ बिजली बिल को लेकर उनकी बात मानने को पूरी तरह तैयार हो गई है, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर अपना रुख थोड़ा नरम किया है। अब सारा पेच इसी पर फंसा है कि सरकार विवादित कृषि कानूनों को वापस नहीं लेना चाहती। हां, उसका यह प्रस्ताव अपनी जगह है कि किसानों की इस सम्बन्धी मांग पर विचार के लिए एक समिति बना दी जाये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी ऐसी एक समिति बनाने की बात कही गई थी और सरकार को सुझाया गया था कि उस समिति की सिफारिशों के आने तक इन कानूनों पर अमल रोक दे। लेकिन सरकार ने ऐसा करना गवारा नहीं किया। अगर सरकार नहीं मानी तो यही माना जायेगा कि वह वार्ता नहीं कर रही, समय बिताने और आन्दोलित किसानों को थकाने व उनका हौसला तोड़ने की चालाकी बरत रही है। ऐसा करके वह यही सिद्ध करेगी कि उनका दिन-रात राजधानी की सड़कों पर बैठे रहना विरोधी दलों की राजनीति से प्रेरित या कि उनका शगल है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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