क्या भाजपा पश्चिम बंगाल में जमीन तोड़ पायेगी ? - Pratidin

पश्चिम बंगाल में अगले वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पहले केन्द्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच के रार बढती ही जा रही हैं। रार का कारण दोनों ऐसे दल हैं, जो राज्य में सत्ता के प्रबलतम दावेदार हैं। जहां राज्यपाल तृणमूल कांग्रेस सरकार को ऐन-केन-प्रकारेण कठघरे में खड़ी करने और कोसने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहते, वहीं  ममता बनर्जी आलोचना का कोई मौका चूकना नहीं चाहती। ममता बनर्जी द्वारा आलोचना का केंद्र हमेशा मोदी, भाजपा और केंद्र सरकार रहती आई है।

इस क्रम में भाजपा ने भी पार्टी पदाधिकारियों के अलावा गृहमंत्री से लेकर ऐसे सरकारी अधिकारियों के इस्तेमाल से भी गुरेज नहीं किया है, जिनसे सरकारी पदों पर होने के कारण राजनीति से मुक्त रहने की अपेक्षा की जाती है। उनके द्वारा भाजपा के लिए कार्यकर्ता और उसके राजनीतिक अभियानों के लिए भारी भीड़ जुटाने तक के प्रयास किये जा रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा द्वारा निरन्तर  जुमला उछाला जा रहा है कि वह पश्चिम बंगाल की सत्ता में आने वाली हैं। यह आरोप भी लगाये जा रहे हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहीं। 

पिछले दिनों घटी घटना के बाद राज्यपाल ने केन्द्र को यह जताने में देर नहीं की कि ममता सरकार राज्य की कानून और व्यवस्था संभालने में विफल हो गई है और हालात से निपटने का एकमात्र विकल्प उसे बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू कर देना ही है। उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को यह चेतावनी भी दी कि वे आग से न खेलें। 

इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा तो विधानसभा चुनाव उसी व्यवस्था के अंतर्गत ही होंगे। तब सत्ता से बाहर हो जाने के कारण राज्य की प्रशासनिक मशीनरी ममता के प्रभाव से परे और राज्यपाल व उनके द्वारा नियुक्त सलाहकारों के नियंत्रण में कार्य करने को मजबूर होगी। भले ही राजभवन  कहने को राजनीति से मुक्त होते है,  ,पर केन्द्र के अभीष्ट राजनीतिक खेल में शामिल होने से कोई इंकार नहीं कर सकता। 

अभी तो राष्ट्रपति शासन का विकल्प आजमाने के रास्ते में सबसे बड़ी कठिनाई सर्वोच्च न्यायालय है, जो ऐसी स्थिति में किसी भी तरह की जल्दबाजी का विरोधी है। उसके पूर्व के निर्णयों का निष्कर्ष यह है कि राष्ट्रपति शासन अन्तिम विकल्प है और उसका इस्तेमाल तभी किया जाना चाहिए, जब राज्य की सरकार को बर्खास्त करने के असंदिग्ध समुचित कारण हों। ऐसा सिद्ध न होने पर वह सरकार की बहाली का आदेश भी दे सकता है। 

कल्पना कीजिये यदि ऐसा होगा तो ममता अपनी बर्खास्तगी को शहादत के तौर पर प्रचारित करेंगी। भाजपा का लाभ इसी में है कि वह अपनी केन्द्र सरकार को उस हद तक न जाने दे और शासनरत ममता के खिलाफ असंतोष का विस्तार करती रहे। साथ ही जनता में संदेश ले जाये कि उसने उनका अस्तित्व कमजोर कर दिया है, इसलिए किसी को कुछ भी करने  से गुरेज नहीं है।

यह संदेश राज्य में भाजपा की चुनावी संभावनाएं उजली कर सकता है क्योंकि न अब वहां वामपंथ को बदलाव के विकल्प के रूप में देखा जाता है, न कांग्रेस को। लेकिन यह सवाल अभी भी पूछा जा रहा है कि क्या ममता के खिलाफ  एंटीइन्कम्बेंसी का लाभ भाजपा जैसी पार्टी को मिल सकता है, जो कभी राज्य में खुद को चुनाव लड़ने लायक भी नहीं समझती थी? इससे पहले भाजपा को राज्य में कभी 10 विधानसभा सीटें भी नहीं मिल पाई हैं। इसलिए पूछना होगा कि क्या उसका बढ़ा हुआ प्रभाव इतना है कि मतदाता उसे प्रदेश का नया विकल्प स्वीकार कर लें? खासकर जब ममता की पार्टी में आन्तरिक विद्रोह भी उनके खिलाफ  वातावरण बना रहा है। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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