खबरों का अखाड़ा और टी आर पी का युद्ध - Pratidin

देश में एक अजीब किस्म का युद्ध चल रहा है | युद्ध में सारे टी वी चैनल मैदान में है, होड़ इस बात की है किसकी टी आर पी ज्यादा है ? जिस टी आर पी को लेकर पुलिस थाने से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में बहस चल रही है, उसके बारे में बहुत से टी वी दर्शक जानते तक नहीं है | उनके ही लिए सबसे पहले यह बात की टी आर पी क्या है ? कौन सा टीवी चैनल को कितना देखा जा रहा है यह मापने का एक पैमाना टी आर पी [टेलीविजन रेटिंग पाइंट ] कहा जाता है| इसके दायरे में मनोरंजक, ज्ञानवर्धक और न्यूज सभी तरह के कार्यक्रम दिखाने वाले चैनल आते हैं| अब टीआरपी को मापने के लिए अब “बी ए आर सी” नामक संस्था अधिकृत है| 

पहले यह काम “टैम” नामक संस्था करती थी |टैम के ज़माने में टी आर पी की एक बड़ी धोखाधड़ी सामने आयी थी। बड़ी संख्या में ख़ास लोगों के घर पर मुफ़्त टीवी सेट दिए गए थे। उनमें टैम का मीटर लगाया गया था। आरोप था कि टैम के कुछ अधिकारी पैसे लेकर एक ख़ास चैनल चलवाते थे जिससे उसकी टीआरपी बढ़ जाए।

यह संस्था “बी ए आर सी” पूरे देश में कुछ घरों को चुनकर उनके टीवी सेट में व्यूअरशिप मापने के उपकरण लगाती है, जिन्हें बैरोमीटर कहते हैं| ताजा जानकारी के अनुसार बीएआरसी ने पूरे देश में करीब 45000 घरों में ये बैरोमीटर लगाए हुए हैं| कौन सा चैनल कितना लोकप्रिय है टी आर पी ही इसका फैसला करती है| इसी लोकप्रियता के आधार पर चैनलों को विज्ञापन मिलते हैं और उन्हीं से चैनलों की कमाई होती है|

प्रक्रिया का श्री गणेश परिवार चयन के साथ होता है |चुने हुए परिवार के हर सदस्य को एक आई डी दिया जाता है और हर व्यक्ति जब भी टीवी देखना शुरू करता है तो उस से पहले वो अपने आई डी वाला बटन दबा देता है| इससे यह दर्ज हो जाता है कि किस उम्र, लिंग और प्रोफाइल वाले व्यक्ति ने कब कौन सा चैनल कितनी देर देखा| यह आंकड़े बी ए आर सी इकठ्ठा करती है और हर हफ्ते एक रिपोर्ट जारी करती है| बी ए आर सी ने 2015 में उपभोक्ताओं को अलग अलग श्रेणी में बांटने की एक नई प्रणाली लागू की थी| इसके तहत सभी घरों को उनके शैक्षिक-आर्थिक स्तर के हिसाब से 12 अलग अलग श्रेणियों में बांटा गया था | इसके लिए परिवार में कमाई करने वाले मुख्य व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यता और चीजों में से कौन कौन सी उस घर में हैं, यह देखा गया |इनमे में बिजली के कनेक्शन से लेकर गाड़ी तक शामिल हैं|

जिस घर में बॉक्स लगा हो उस घर में टीवी चलते ही सबसे पहले ये बताना होता है कि टीवी कौन देख रहा है। कोई बच्चा, सिर्फ़ महिला या पुरुष या पूरा परिवार। बॉक्स में लगी चिप के ज़रिए ये सूचना बार्क के कंप्यूटर तक पहुँच जाती है। इसके साथ ही चैनल के लोगो या नाम को पहचानकर बॉक्स ये पता कर लेता है कि कौन सा चैनल देखा जा रहा है। बॉक्स से मिली सूचना के आधार पर दो महत्वपूर्ण आँकड़े निकाले जाते हैं। किसी ख़ास चैनल को कितने लोगों ने और कितनी देर तक देखा। इसी के आधार पर रेटिंग तय होती है|दर्शक की संख्या का फ़ैसला और फिर विज्ञापन की दर बार्क रेटिंग से तय होती है, इसके चलते ही रेटिंग बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। रेटिंग निकालने के लिए दर्शकों के टीवी सेट के साथ एक मीटर लगाना पड़ता है। देखने में ये मीटर, सेट टॉप बॉक्स की तरह का होता है। ये बॉक्स महत्वपूर्ण सूचनाये देता है।

जाँच के लिए बैरोमीटर गुप्त रूप से लगाए जाते हैं, यानी उन्हें लगाने के लिए किन घरों को चुना गया है यह जानकारी गुप्त रखी जाती है| अगर किसी चैनल को किसी तरह यह पता चल गया कि किन घरों में उपकरण लगे हैं वो वो उसके घर के सदस्यों को अलग अलग तरह के प्रलोभन दे कर उन्हें हमेशा वही चैनल लगाए रखने का लालच देते हैं| चैनल केबल ऑपरेटरों को भी रिश्वत दे कर यह सुनिश्चित कराते हैं कि जहां जहां उनके कनेक्शन हैं वहां जब भी टीवी ऑन हो तो सबसे पहले उन्हीं का चैनल दिखे| फिर जब तक दर्शक चैनल बदलेगा तब तक उनके चैनल की व्यूअरशिप अपने आप दर्ज हो जाती है |

इस बार युद्ध का घोष मुम्बई पुलिस ने किया है | मुंबई पुलिस कमिश्नर के अनुसार हंसा नामक एक निजी रिसर्च एजेंसी को पता चला की कुछ न्यूज टीवी चैनलों द्वारा ऐसी छेड़छाड़ की जा रही है और उसने पुलिस को इसकी शिकायत की| हंसा ने अपने ही एक कर्मचारी को भी इसमें शामिल पाया और उसे नौकरी से निकाल उसके बारे में पुलिस को जानकारी दी| हंसा की शिकायत के आधार पर मुंबई पुलिस ने न्यूज़ चैनल रिपब्लिक और दो मराठी चैनलों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की. पुलिस ने मराठी चैनलों के मालिकों को गिरफ्तार कर लिया और रिपब्लिक के निदेशकों और प्रोमोटरों के खिलाफ धोखाधड़ी की जांच शुरू कर दी |रिपब्लिक ने इन आरोपों का खंडन किया है और कमिश्नर के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करने की घोषणा की |

इस सारे युद्ध के पीछे विज्ञापन की रार है |किसी भी चैनल के विज्ञापन की दर उसके दर्शकों की संख्या के आधार पर तय होती है। उदाहरण के लिए अगर किसी चैनल के दर्शकों की संख्या सबसे ज़्यादा है तो उस पर विज्ञापन महँगा होता है और जिस चैनल के दर्शकों की संख्या कम है उस पर विज्ञापन सस्ता होता है। किसी ज़्यादा दर्शक वाले चैनल को दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए चार – पांच हज़ार रुपये तक मिल जाते हैं ,जबकि सबसे कम दर्शक वाले चैनल को दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए मात्र दस रुपये से भी कम मिलते हैं। 

हमारे देश भारत में दर्शक अभी न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए पैसे नहीं देते यानी न्यूज़ चैनल ‘पे चैनल’ नहीं हैं इसलिए वे सिर्फ़ विज्ञापन की आमदनी पर निर्भर हैं। मनोरंजन चैनल को दर्शकों से फ़ीस तो मिलने लगी है लेकिन ख़र्च के हिसाब से ऐसे पे चैनलों की आमदनी भी बहुत कम है इसलिए वे भी विज्ञापन पर ही निर्भर हैं। जब तक बाज़ार है, विज्ञापन है। विज्ञापन है, तो पैसा है। जहाँ पैसा है वहां झगड़ा है। जहाँ झगड़ा है, वहां थाना है-अदालत है | इसमें समाचार और मनोरंजन का बलिदान बिना किसी कारण हो रहा है। पत्रकारिता की यह विधा युद्ध में बदल गई है। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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