विश्व के सवसे बड़े प्रजातंत्र में अब उसके चौथे स्तम्भ की स्वायत्तता पर सवाल इन दिनों भारत में खड़ा हुआ है | स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की बात के पक्षधर यह नहीं बता पा रहे हैं की मीडिया के राजाश्रय की सीमा कहाँ से शुरू हो और कहाँ खत्म हो |जैसे स्वतंत्र मीडिया का अस्तित्व संवैधानिक लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य शर्त है, उसी तरह यह मीडिया का दायित्व है कि वह जनता के सरोकारों, समस्याओं और चिंताओं के लिए अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करे| साथ ही उसे सरकार और नागरिक के बीच संवाद सूत्र की भूमिका का निर्वाह भी करना चाहिए |वैसे यह एक आदर्श स्थिति है जो अभी दिखती नहीं है, परन्तु प्रजातंत्र की मजबूती के लिए ऐसा होना चाहिए |
इसके विपरीत जो रवैया देश में चल रहा है उससे क्षुब्ध होकर अनेक खबरिया चैनलों पर समाचारों और बहसों की प्रस्तुति पर सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने टिप्पणी की है, यूँ तो उससे अनेक सवाल खड़े होते है, जिनमें सबसे प्रमुख सवाल यह खड़ा होता है कि “क्या टेलीविजन चैनल सचमुच जिम्मेदार मीडिया के रूप में काम कर रहे हैं या फिर पत्रकारिकता की मर्यादाओं को तार-तार कर संवैधानिक और लोकतांत्रिक भारत को नुकसान पहुंचा रहे हैं|”
एक चैनल के विवादित कार्यक्रम पर रोक लगाने का निर्णय देते हुए खंडपीठ ने अनेक कड़ी टिप्पणियां की है, जैसे- अधिक दर्शक पाने की होड़ में सनसनीखेज प्रस्तुतियां करना और लोगों की छवियों को ध्वस्त करना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चलन बन गया है तथा इस रवैये को चैनल अपना अधिकार मानते हैं| मीडिया का एक हिस्सा एक समुदाय विशेष के खिलाफ भावनाएं भड़काने की कोशिश भी कर रहा है| सुनवाई के दौरान प्रेस काउंसिल की ओर से यह कहा जाना तथ्यात्मक रूप से सही है कि मीडिया पर निगरानी रखने और सुधार करने के लिए प्रावधान हैं, लेकिन असलियत यह है कि स्वायत्त संस्थाएं और मीडिया के अपने संगठन इन प्रावधानों के मुताबिक कार्रवाई करने और गलत तौर-तरीके अपना रहे चैनलों पर लगाम लगाने में पूरी तरह से असफल साबित हुए हैं|
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यह भी कहा है कि “अगर ये व्यवस्थाएं प्रभावी होतीं, तो वह सब टीवी पर नहीं दिखता, जो कि दिखाया जा रहा है|” सच भी है, बीते कुछ समय से अनेक चैनलों ने विभिन्न मुद्दों पर जिस तरह से रिपोर्टिंग की है और शोर-शराबे व अभद्रता के साथ बहसों का संचालन हुआ है, उसे देखते हुए न्यायाधीशों की चिंताएं और आलोचनाएं बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं| याद कीजिये, तकरीबन ढाई दशक पहले जब हमारे देश में निजी टेलीविजन चैनलों का दौर शुरू हुआ, तो ऐसी उम्मीद जतायी गयी थी कि प्रिंट मीडिया की व्यापक मौजूदगी के साथ इस नये माध्यम से जनता को अपनी बात कहने और सरकारों को जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी| यह आशा उद्देश्य पूर्ति नहीं कर सकी |
कुछ हद तक और कुछ सालों तक ऐसा हुआ भी, किंतु धीरे-धीरे मुनाफा कमाने और दर्शकों को अपने पाले में खींचने की होड़ ने उन उम्मीदों पर पानी फेरना शुरू कर दिया|अब तो पुलिस और अन्य वैधानिक अनुसन्धान संगठनों सी भूमिका भी खबरिया चैनल निभाने की कोशिश करने लगे है | इन दिनों बहस की बजाय जहरबुझे शब्द, व्यक्तिगत तंज और ढर्रे के प्रत्यारोप ही दृष्टव्य हैं। जैसे अगर कांग्रेस राफेल के मुद्दे को उठाएगी तो भाजपा का प्रवक्ता बिना देर किए बोफोर्स रिश्वत कांड का जिक्र बीच में ले आएगा, यदि कांग्रेस गुजरात दंगों की बात करेगी तो भाजपा १९८४ के सिख नरसंहार को याद दिलाना नहीं भूलती।ऐसे में उन महान आत्माओं को भी घसीट लिया जाता है जो अपना श्रेष्ठ देश को दे गये हैं | इस वाद-विवाद से धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद और विकास पर कोई समझ विकसित नहीं होती न कोई निष्कर्ष समाज के सामने आता है |
आज गंभीर पत्रकारिता घाटा भुगत रही है, सनसनी को बढ़ावा दिया जा रहा है | बहसें वाक्युद्ध से भरी हैं, जैसे देश को दोफाड़ करना उनका मकसद हो, हिंदू बनाम मुस्लिम, राष्ट्रभक्त बनाम देशद्रोही, हिंदुत्व बनाम वाम, उदारवाद का ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष।आजकल यही परोसा जा रहा है, क्योंकि इस तरह के कार्यक्रम परोसने से सनसनी बनती है |मत भूलिए, यह सब जनता की सामूहिक चेतना को कुंद बनाकर न्यून करने की गरज से है। यह सब इस बात के साक्षात संकेत है की न्यूज चैनल किस दौर से गुजर रहे और जनमानस को कितना मानसिक आघात दे रहे हैं ।
पत्रकारिता के इस पतन का असर अखबारों पर भी पड़ा है और डिजिटल तकनीक पर आधारित न्यू मीडिया पर भी. फेक और जंक न्यूज से भरे डिजिटल व सोशल मीडिया तथा आक्रामक रूप से एजेंडे थोपने पर उतारू मुख्यधारा की मीडिया ने समाज और राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।