“आत्मनिर्भर” बनें “राज्य निर्भरता” को भूल जाये / EDITORIAL by Rakesh Dubey

लॉक डाउन के कारण हम भारतीयों की जरूरतें उनके मायने एवं आवश्यकताएं बदल चुकी हैं। जहां जीवन की मौलिक जरूरतों पर होने वाले खर्च कम एवं दिखावे पर होने वाले खर्च ज्यादा होते थे, वह चक्र अब उलटा घूमेगा। समाज एवं प्रत्येक व्यक्ति की अपनी जरूरतों के लिए सरकार की ओर ताकना एक मजबूरी और आदत-सी बन गयी है। “आत्मनिर्भरता” की आड़ में “राज्य निर्भरता” पर समाज परावलम्बित होता दिख रहा है। सरकार के पैकेज इस भावना को और बल दे रहे हैं। अनुभव के आधार पर यह भी स्पष्ट है कि सरकारी मदद कागजों पर ज्यादा दिखती है परंतु धरातल पर कम होती है। उद्योगों को समाज की नयी जरूरतों की पूर्ति के लिए अपने आपको नये उत्पादों एवं नयी जरूरतों की संतुष्टि के लिए लैस या पुनः संरक्षित होने के साथ गंभीर समस्याओं को नये मौकों में तब्दील करना होगा| यही प्रक्रिया आत्म निर्भर होने की दिशा में पहला कदम होगी।

सरकार कुछ नया सोचेगी या करेगी, इस स्वप्न में डूबे उद्योग जल्दी ही सच्चाई के धरातल से टकराकर ध्वस्त हो जाएंगे। बचेंगे वही जो खुद नया सोचेंगे और नया करेंगे या नया करने की हिम्मत दिखाएंगे। धैर्य, हौसले, उत्साह और जोखिम उठाने की क्षमता का सहारा लेकर ही उद्योग वर्तमान चुनौतियों से उबर पाएंगे एवं समाज की नयी औद्योगिक संरचना में अपनी सार्थक भूमिका निभा पाएंगे। भारतीय अर्थव्यवस्था का राजस्व प्रति वर्ष करीब 30 हजार करोड़ का है, जिसका 82 प्रतिशत हिस्सा जीएसटी, कॉरपोरेट टैक्स एवं पर्सनल टैक्स से आता है। तीनों प्रकार के टैक्स अदाकर्ता आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उत्पादन कम हो रहा है तो जीएसटी घटेगा। जीएसटी घटेगा तो इससे मिलने वाला राजस्व घटेगा। मांग में धीमापन होने की वजह से उद्योगों का मुनाफा घटेगा, जिससे कॉरपोरेट टैक्स में कमी आएगी एवं लोगों की व्यक्तिगत आय पहले की तुलना में कम हो जाएगी। अतः राजस्व द्वारा मिलने वाली वास्तविक रकम एवं अर्थव्यवस्था कम से कम 10 प्रतिशत सिकुड़कर कम हो सकती है। 

वर्तमान में लगभग 50 करोड़ लोगों की जीविका नौकरियों पर आधारित है, जिनमें से 10 प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, शेष असंगठित सेक्टर से जुड़े हैं। विमानन एवं पर्यटन में करीब 80 लाख, ऑटोमोबाइल सेक्टर में 1 करोड़ 40 लाख, निर्माण में 5 करोड़ 40 लाख, कृषि में 20 करोड़ लोग काम करते हैं। यदि इनसे मिलने वाले जीडीपी पर नजर डाली जाए तो कृषि से कुल राजस्व का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा मिलता है। इसी तरह सेवा क्षेत्र से 50 प्रतिशत हिस्सा मिलता है।

आज़ादी के समय राजस्व में खेती का योगदान 70 प्रतिशत और सेवाओं का सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्सा होता था। इसके बाद सेवाओं में भारी विस्तार हुआ और यह क्षेत्र करीब 50 प्रतिशत तक विस्तृत हो गया। जबकि खेती असामान्य रूप से कम हो गई। उत्पादन का योगदान करीब 25 प्रतिशत है जबकि शेष अन्य क्षेत्रों से जुड़ा है। खास बात यह है कि प्रत्यक्ष रूप से जीडीपी में इन क्षेत्रों की हिस्सेदारी सिर्फ 2 प्रतिशत है। अब यदि रियल एस्टेट में 50 प्रतिशत की गिरावट आती है तो ढाई करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे, जिससे इस क्षेत्र की हिस्सेदारी भी प्रभावित होगी। इन सारे हालात में जो क्षेत्र सबसे कम प्रभावित होंगे उनमें टेलीकॉम, फार्मास्यूटिकल, सूचना प्रौद्योगिकी, कृषि एवं रासायनिक क्षेत्र से जुड़े उद्योग होंगे।

पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था का राजस्व 90 ट्रिलियन यूएस डॉलर है। इसमें अमेरिका की हिस्सेदारी 24.4 प्रतिशत है। जबकि चाइना 15.4 प्रतिशत के साथ दूसरे, जापान 6.3 तीसरे व जर्मनी 4.63 चौथे व भारत 3.27 पांचवें क्रम पर है। भारतीयों की क्रय शक्ति क्षमता दूसरे देशों की तुलना में कम है।

हमे अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैश्वीकरण की प्रक्रिया से वापस मुड़कर घरेलू उत्पादन की ओर रुख करना होगा । इसकी पहल केंद्र सरकार ने दो सौ करोड़ रुपये तक की लागत वाले टेंडर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नहीं उतारने का निर्णय लेकर कर दी है। इसके चलते बैलेंस ऑफ ट्रेड प्रभावित होगा। इससे बचने के लिए जो जहाँ है, उसे वही काम पर लगना होगा। यह विचार करने की जरूरत है कि संकट की इस घड़ी में क्या कदम उठाए जाएं कि जीवन व्यवस्था पुनः पटरी पर आ सके। सबसे पहले अधिकतम से न्यूनतम की ओर चलना पड़ेगा। चाहे वे उद्योग हों या सरकार उन्हें राष्ट्र के नागरिकों की आवश्यकताओं को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हुए उनके जीवन को सुगम बनाने के अनुकूल व्यवस्थाएं करनी होंगी। देश के प्रत्येक नागरिक को अपना शत प्रतिशत देश को देना होगा।

उद्योगों में प्रबंधन को शीर्ष व्यक्ति एवं न्यूनतम व्यक्ति के बीच व्यापक आर्थिक अंतर को पाटना होगा। जापान की किसी भी इंडस्ट्री में सबसे बड़े अधिकारी और सबसे छोटे घटक की आमदमी के बीच 1: 28 का अंतर है। भारत में यह अंतर 1 की तुलना में कई सौ गुणा से भी ज्यादा है। ऐसे में सामाजिक संरचना की खाई को कम करना होगा। आर्थिक विषमता को कम करके समानता की ओर बढ़ना पड़ेगा। श्रमिक का इस्तेमाल केवल साधन के तौर पर नहीं किया जा सकता। श्रमिक को भावनात्मक प्राणी के तौर देखना होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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