वित्त : जरूरी है, इस विषय पर सवाल पूछना | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। अभी कुछ कहा नहीं जा सकता कि ये लॉक डाउन कब तक चले। देश में कोरोना के कारण आवाजाही पर लगी सख्त पाबंदी और सामाजिक दूरी बनाए रखने की मजबूरी ने भारत पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव डाला है। देश को मौजूदा लॉकडाउन की वजह से कम-से-कम एक महीने का आर्थिक उत्पादन गंवाना होगा आगे भविष्य भी कम बेहतर ही नज़र आ रहा है। देश की जनता को हक है की सरकार से पूछे आगे वित्तीय गाडी कैसे चलेगी ?

ताजा आंकड़ों के अनुसार आर्थिक उदासी के माहौल में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने भारतीय इक्विटी एवं डेट में अपने निवेश को कम कर दिया है। वित्त वर्ष 2019-20  में दिसंबर 2019 के अंत में शुद्ध इक्विटी एवं डेट प्रवाह क्रमश: 7.7 अरब डॉलर और तीन अरब डॉलर था। वहीं मार्च, 2020 के अंतिम दिनों शुद्ध इक्विटी आवक 3.5 अरब डॉलर तक कम हो चुकी थी जबकि भारी विदेशी निकासी होने से शुद्ध डेट प्रवाह ऋणात्मक 4.2 अरब डॉलर हो चुका था। इससे साफ है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के स्तर पर सार्वजनिक व्यय को उस स्तर तक बढ़ाना होगा कि भारतीयों, खासकर दैनिक कामगारों की आय में आने वाली तीव्र गिरावट से निपटा जा सके। फंडिंग समर्थन की प्रकृति एवं मात्रा सरकार और पीडि़तों के दुखों को लेकर सजग स्वतंत्र विशेषज्ञों के बीच गहन परामर्श पर आधारित होनी चाहिए।

आम भारतीय की याद्दाश्त बड़ी छोटी है और वित्तीय धांधलियों एवं घोटालों के मामलों में तो यह बात खास तौर पर सही है। मसलन, सार्वजनिक बैंकों के पिछले पांच साल में हुए पुनर्पूंजीकरण का करदाताओं पर करीब 4 लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ा है। भारत में बेहतर ढंग से संचालित हो रहे निजी बैंक मसलन एचडीएफसी बैंक का बहुलांश स्वामित्व विदेशी कंपनियों का है, वे पूंजी पर ऊंचा प्रतिफल हासिल करते हैं और बांटे गए कर्जों के प्रतिशत के तौर पर उनकी शुद्ध गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां कम हैं। फिर भी इस परिदृश्य पर विचार करना होगा कि भारत में कुल जमा का 90 प्रतिशत अगर निजी बैंकों के पास रहता है तो कैसे हालात बन सकते हैं? फिलहाल यह अनुपात महज 40 प्रतिशत है।

हमारे देश में राजनीतिक कुकृत्यों के अलावा वरिष्ठ लोकसेवकों की मौन स्वीकृति के चलते हमारे सार्वजनिक बैंक दोस्ती एवं संपर्कों के आधार पर कर्ज बांटने को मजबूर होते हैं। हम बोर्ड से इतर विशेषज्ञों को वित्तीय संस्थानों एवं नियामकीय संस्थाओं के प्रमुख के तौर पर नियुक्त करने का सरकार को अधिकार देने के लिए हर तरीका अपनाते हैं। भले ही सरकार ने बैंक बोर्ड ब्यूरो जैसे नियुक्ति पैनलों का गठन किया है लेकिन सरकार का मौजूदा चलताऊ रवैया तब तक नहीं सुधारा जा सकता है जब तक कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए कानून में प्रावधान नहीं किया जाता है।

याद कीजिये, एक समय ललित मोदी- इंडियन प्रीमियर लीग, विजय माल्या- आईडीएफसी, नीरव मोदी- पंजाब नैशनल बैंक, चंदा कोछड़-आईसीआईसीआई बैंक और रवि पार्थसारथि- आईएलऐंडएफएस जैसे वित्तीय घपलों में शामिल लोगों को भारत में निजी क्षेत्र के चमकते सितारे बताया जाता था। इन मामलों के सामने आने के बाद भी कई साल बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक सरकार ने खास कार्रवाई नहीं की है। ऐसे में भारतीय वित्तीय क्षेत्र में धोखाधड़ी के लगातार सामने आ रहे मामलों को देखकर आश्चर्य नहीं होता है। सरकार को चाहिए कि इन मामलों को समाचारपत्र हरेक महीने एक सूची प्रकाशित करे और उसमे ऐसे गंभीर मामलों में हुई प्रगति का ब्योरा देने वाला एक चार्ट भी प्रकाशित हो। ऐसे मामलों की अगर सरकारी एजेंसियों की तरफ से कोई नई जानकारी नहीं दी जाये तो उस मामले में शून्य प्रगति दिखाना भी अनिवार्य किया जाये।

अभी तो सरकारें ही आरबीआई एवं सेबी और दूसरे वित्तीय संस्थानों के प्रमुखों की नियुक्ति करती हैं। हम भारतीयों खुद को जागरूक क्र एक चैतन्य समाज के तौर पर पेश करना होगा। जो सार्वजनिक एवं निजी स्वामित्व के बीच के भ्रामक भेद के बजाय अपनी चुनी हुई सरकारों से उन नियुक्तियों पर सवाल कर सके जो देश के वित्तीय ढाँचे को बर्बाद करने पर उतारू हैं ।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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