मप्र सत्ता संग्राम: कानूनी दांवपेच, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, बीजेपी-कांग्रेस की दलीलें, यहां पढ़िए | MP NEWS

Bhopal Samachar
भोपाल। मध्य प्रदेश में सत्ता के लिए संघर्ष अपने चरम पर है। बेंगलुरु में कांग्रेस विधायकों ने प्रेस के सामने आकर कहा कि उन्हें बंधक नहीं बनाया गया बल्कि कमलनाथ से डरकर वह मध्यप्रदेश छोड़कर भाग आए हैं। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को तीसरी चिट्ठी लिखी थी लेकिन सरकार ने फ्लोर टेस्ट नहीं कराया। सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष को नोटिस जारी कर दिया है। कुल मिलाकर मध्य प्रदेश का मामला अब शुचिता की राजनीति की सीमाओं से बाहर निकलकर कानूनी दांवपेच उलझ गया है। आइए समझने की कोशिश करते हैं:

भारत के संविधान में राज्यपाल के अधिकार (अनुच्छेद 163, 174, 175)

अनुच्छेद 174 (राज्य के विधान-मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन का अधिकार)
1. राज्यपाल, समय-समय पर, विधान-मंडल के सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जिसे वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, दो सत्रों के बीच छह माह का अंतर नहीं होना चाहिए।  
2. राज्यपाल, विधानसभा का सत्रावसान कर सकता है और विधान सभा का विघटन कर सकता है। 

अनुच्छेद 175 (सदन या सदनों में अभिभाषण का और उनको संदेश भेजने का अधिकार)
1.राज्यपाल, विधानसभा में अभिभाषण कर सकता है, और इसके लिए सदस्यों से उपस्थित रहने की अपेक्षा कर सकता है।
2. राज्यपाल, विधानसभा में लंबित किसी विधेयक के संबंध में या किसी अन्य विषय पर कोई संदेश सदन को भेज सकता है। 

अनुच्छेद 163 (राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद)
1. जिन बातों में संविधान द्वारा राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कार्यों को स्वयं के विवेकानुसार करे, उन्हें छोड़कर बाकी के कार्यों में राज्यपाल की सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।
2. यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।

कांग्रेस के तर्क - विवेक तन्खा, राज्यसभा सांसद 

सरकार के मौजूद रहते राज्यपाल की शक्तियां मंत्रिपरिषद में निहित हैं। राज्यपाल उसकी सलाह के बिना कोई आदेश, निर्देश जारी नहीं कर सकते ।
नबाम रेबिया एंड बमांग फेलिक्स बनाम डिप्टी स्पीकर अरुणाचल प्रदेश के केस में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 175 (2) की व्याख्या करते हुए कहा है कि “राज्यपाल और विधानसभा के बीच का संबंध संदेश भेजने के मामले में उसी हद तक सीमित है, जिस हद तक मंत्रिपरिषद उचित समझे। अनुच्छेद 175 सहपठित अनुच्छेद 163 (1) स्पष्ट रूप से यह प्रावधान नहीं करता है कि राज्यपाल उपरोक्त शक्तियां अपने विवेकाधिकार से उपयोग कर सकेंगे। ऐसी स्थिति में हम सिर्फ इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि राज्यपाल द्वारा विधानसभा को भेजे जाने वाले संदेश मंत्रिपरिषद द्वारा दिए गए सलाह के अनुरूप ही होंगे।” 
इसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “विधानसभा अध्यक्ष के कार्य में हस्तक्षेप करना राज्यपाल के क्षेत्राधिकार में नहीं आता। राज्यपाल विधानसभा अध्यक्ष का मार्गदर्शक या परामर्शदाता नहीं है। राज्यपाल अध्यक्ष से यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि अध्यक्ष उस तरीके से सदन में कार्य करे जो राज्यपाल संवैधानिक दृष्टि से उचित समझता है। राज्यपाल तथा अध्यक्ष दोनों के अपनी स्वतंत्र संवैधानिक जिम्मेदारियां हैं।  विधानसभा राज्यपाल के नीचे काम नहीं करती। कुल मिलाकर राज्यपाल विधानसभा के ओम्बुड्समैन की तरह काम नहीं कर सकते।

भाजपा का तर्क - आरएन सिंह (पूर्व महाधिवक्ता), भाजपा

फ्लोर टेस्ट या विधानसभा भंग के लिए अल्पमत की सरकार से राज्यपाल को सलाह लेने की जरूरत नहीं।
वर्ष 2016 में नबाम रेबिया एंड बमांग फेलिक्स बनाम डिप्टी स्पीकर अरुणाचल प्रदेश के केस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया था कि “जब तक सरकार के पास पूर्ण बहुमत है, तब राज्यपाल अनुच्छेद 174 के तहत सदन को उसी स्थिति में भंग कर सकता है, जब मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद इसकी सलाह राज्यपाल को दे। लेकिन जब हालात ऐसे हों जब राज्यपाल को प्रतीत हो कि मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद बहुमत का भरोसा खो चुकी है, तब राज्यपाल इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह मुख्यमंत्री और मंत्रीपरिषद को फ्लोर टेस्ट करने को कहे, और इसके लिए उन्हें मंत्रिपरिषद या मुख्यमंत्री से सलाह की कोई जरूरत नहीं होगी।”
रामेश्वर प्रसाद एवं भारत संघ (2006) के केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सरकारिया कमीशन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए यह स्पष्ट किया है कि जब दोनों पक्ष (सत्ता और विपक्ष) अपने-अपने बहुमत या दूसरे के अल्पमत का दावा करें तब राज्यपाल स्वविवेक से फ्लोर टेस्ट का आदेश दे सकते हैं।
वर्तमान परिस्थितियों में राज्यपाल अनुच्छेद 175 (2) के तहत सरकार को फ्लोर टेस्ट करने को कह (समन करना) सकते हैं। यदि राज्यपाल के समन के बावजूद सरकार फ्लोर टेस्ट नहीं करती है, तो अनुच्छेद 174 (2) के तहत उन्हें ऐसी सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार है। 

प्रो. फैजान मुस्तफा कुलपति, नाल्सर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ

सुप्रीम कोर्ट के अभी तक के सभी फैसले यही कहते हैं कि जब भी बहुमत और अल्पमत का विवाद खड़ा हो, तो सदन में फ्लोर टेस्ट से ही फैसला होना चाहिए। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट एक तय समयसीमा में फ्लोर टेस्ट कराने का ही आदेश देगा। यहां सरकार का फ्लोर टेस्ट नहीं कराने का फैसला गलत है, बेहतर होता कि सरकार फ्लोर टेस्ट पर बहस कराती और वोटिंग को टाल देती। इस मामले में गवर्नर लीगली अपनी जगह सही हैं, लेकिन नैतिक रूप से गलत हैं। उन्हें इतने शाॅर्ट नोटिस पर सत्र के पहले ही दिन फ्लोर टेस्ट के निर्देश देने की बजाय कम से सरकार को दो या तीन दिन का वक्त देना चाहिए था। सत्ता का यह संघर्ष अब दो संवैधानिक पदों के टकराव पर आकर अटक गया है, एक ओर स्पीकर है दूसरी ओर गवर्नर। सामान्यत: स्पीकर का झुकाव मुख्यमंत्री की तरफ और राज्यपाल का केंद्रीय सरकार की पार्टी की ओर होता है। दोनों की ही राजनीतिक लॉयल्टीज हैं, जिन्हें वे निभा रहे हैं। नैतिकता और संवैधानिक तकाजों की बहस में दोनों ही पूरी तरह खरे नहीं उतर पाएंगे। इग्लैंड में ऐसी व्यवस्था है कि स्पीकर और राज्यपाल राजनीतिक पार्टियों के लोग नहीं होते हैं। लेकिन हमारे यहां राजनीतिक लोग हैं, उनसे पूरी तरह निष्पक्षता की उम्मीद की ही नहीं जा सकती।

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