यातायात : भोपाल के बंगलुरु होने का इंतजार | EDITORIAL by Rakesh Dubey

भोपाल के कुछ इलाकों में आप  सुबह और शाम  निर्बाध वाहन नहीं चला सकते   सडक अनियंत्रित ट्राफिक से भरी होती है | यातायात नियंत्रित करने वाली बत्ती की जगह महीनों से खराब है | चौराहे- चौराहे पर पुलिस दिखती है पर उसका यातायात नियन्त्रण से कोई सरोकार नहीं होता | जगह- जगह लगे बेरीकेट या तो वी आई पी  की सुविधा के लिए होते हैं या वहां पुलिस हेलमेट या अन्य  चेकिग की रस्म अदायगी करती दिखती है | यातायात रेंगता था, रेंगता है और शायद रेंगता रहेगा | आला अधिकारयों का तर्क है “रेंगता हुआ यातायात भारत के हर शहर की समस्या है”  | उनके तर्क में दम है, देश का शायद ही कोई ऐसा शहर है, जिसकी सड़कों पर अक्सर यातायात रेंगता हुआ न दिखता हो. इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे खराब ट्रैफिक वाले दस शहरों में चार भारत में हैं| टॉमटॉम ट्रैफिक इंडेक्स २०१९  के मुताबिक, बंगलुरु पहले पायदान पर है, जबकि मुंबई चौथे, पुणे पांचवें और राजधानी दिल्ली आठवें स्थान पर है. यह रिपोर्ट ५७  देशों के ४१६ शहरों के अध्ययन पर आधारित है| एक वाहन चालक बंगलुरु में औसतन वर्ष में १० दिन से अधिक समय व्यस्त ट्रैफिक में बिताता है| भोपाल में भी अब यातायात जाम की अवधि मिनटों से घंटों  में बदलती दिख रही है |

यातायात में वर्ष के दिन का आंकड़ा मुंबई और पुणे में आठ दिन से अधिक है, तो दिल्ली में आठ दिन से दो घंटे कम है. यातायात जाम रहने या धीरे चलने की वजह से लोगों का बहुत समय सड़क पर बरबाद तो होता ही है, साथ ही ईंधन की खपत भी अधिक होती है और प्रदूषण भी बढ़ता है. शहरों में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इस समस्या का नकारात्मक असर पड़ता है|  कामकाजी घंटे बेकार होने और खर्च बढ़ने से अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होती है. सड़क पर दुर्घटना, मार-पीट, झगड़े और अभद्रता का एक बड़ा कारण ट्रैफिक जाम भी है| दो साल पहले बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट में बताया गया था कि दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु और कोलकाता में ट्रैफिक जाम के कारण सालाना २२  अरब डॉलर का नुकसान होता है| इसमें अगर देशभर के शहरों के बोझ को जोड़ लें, तो यह बहुत बड़ी रकम बन जाती है| 

 यह तो सब जानते हैं कि जिस प्रकार से प्रदूषण से होनेवाले रोगों और कामकाज के घाटे से कम धन खर्च कर स्वच्छ वायु व जल की व्यवस्था की जा सकती है, उसी तरह से यातायात में समुचित निवेश कर नुकसान को भी रोका जा सकता है|  आर्थिक विकास और निजी वाहनों की संख्या में बढ़त के साथ अस्सी के दशक से यातायात साधनों की मांग करीब आठ गुना बढ़ी है| इसी अनुपात में  शहरों में आबादी और उसका घनत्व भी लगातार बढ़ा हैऔर बढ़ रहा है |

इस हिसाब से पटरी-आधारित  यातायात, साधन के साथ अन्य सार्वजनिक साधनों का विकास नहीं हो सका है| एक अध्ययन के अनुसार, भारत के बड़े शहरों में सार्वजनिक यातायात  साधनों में  हिस्सेदारी २५  से ३५  प्रतिशत है, जबकि नब्बे के दशक के मध्य में यह आंकड़ा ६० से ८० प्रतिशत था| अभी  देश में करीब १९ लाख बसें हैं, पर सरकारी आकलन के हिसाब से आम यात्रियों के लिए कम-से-कम ३०  लाख बसें चाहिए| 

दो वर्ष पहले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने बताया था कि चीन में हर एक हजार लोगों पर छह बसें हैं, जबकि भारत में हर दस हजार लोगों पर केवल चार बसें हैं| उन्होंने यह भी कहा था कि लगभग ९० प्रतिशत भारतीयों के पास निजी वाहन नहीं है. ऐसे में अगर साधनों की संख्या बढ़ाने और सड़कों की गुणवत्ता पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति लगातार बिगड़ेगी. ट्रैफिक को सुचारु बनाने के मौजूदा उपायों की समीक्षा कर दूरदर्शिता के साथ पहलकदमी की दरकार है|

अब फिर बात भोपाल की पुराने, नये, और नवोदित भोपाल के लिए कोई समग्र यातायात की योजना नहीं है और किसी को इस दिशा में विचार करने की फुर्सत नहीं दिखती है | जब भोपाल के नये हिस्से बंगलुरु की भांति लाइलाज हो जायेंगे तब सरकार चेतेगी |

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