इंदौर। सही-सही तारीख तो कोई नहीं बता पाया लेकिन यह कहानी तब से शुरू हुई जब कैलाश विजयवर्गीय इंदौर के उभरते युवा नेता थे और इंदौर की राजनीति पर सुमित्रा महाजन यानी ताई का वर्चस्व हुआ करता था। दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। बताने की जरूरत नहीं की मध्य प्रदेश पर शासन के 10 सालों में दिग्विजय सिंह ने ना केवल कांग्रेस बल्कि भाजपा के उन सभी दिग्गजों को सिर दर्द देने वाला नया नेता पैदा किया था जो किसी क्षेत्र विशेष में एकाधिकार रखते थे। राजनीति की कथाओं में कहा जाता है कि दिग्विजय सिंह ने कैलाश विजयवर्गीय को सुमित्रा महाजन के खिलाफ शक्तिशाली बनाया था। यदि दिग्विजय सिंह उस समय मदद ना करते कैलाश विजयवर्गीय आज चाहे जो भी होते लेकिन वह नहीं होते जो है। कहा तो यह भी जाता है कि यदि दिग्विजय सिंह आशीर्वाद ना देते तो आकाश विजयवर्गीय विधायक ना होती।
दिग्विजय सिंह ने कैलाश विजयवर्गीय के सामने कांग्रेस का प्रत्याशी ही नहीं उतारा था
जब भाजपा ने महापौर का टिकट विजयवर्गीय को दिया था तो कांग्रेस ने उनके सामने अधिकृत प्रत्याशी उतारने के बजाय सुरेश सेठ को अपना समर्थन दे दिया था। तब 69 वार्डों में भी फ्री फॉर ऑल की तर्ज पर पार्षद पद के उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। यह फैसला भी तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने लिया था।
महापौर कैलाश विजयवर्गीय को दिग्विजय सिंह सरकार से बहुत मदद दी गई
बाद में विजयवर्गीय के महापौर कार्यकाल में शहर के विकास के काफी काम हुए और उनके लिए तब प्रदेश सरकार भी मददगार साबित होती रही। तब कांग्रेस नेता ही कहने लगे थे कि विजयवर्गीय की शिकायतें सिंह के सामने करने का कोई मतलब नहीं है। दोनों के बीच पक्का राजनीतिक तालमेल है।
दोनों कभी एक दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाते
विजयवर्गीय और सिंह अच्छे वक्ता हैं। दोनो ही अपने विवादित बयानों के लिए भी चर्चित रहते हैं, लेकिन कभी एक-दूसरे के खिलाफ खुलकर नहीं बोलते। एक-दूसरे के सवालों को हंसकर टाल जाते हैं। लोकसभा चुनाव के समय जब पत्रकारों ने विजयवर्गीय से पूछा था कि वे कहां से चुनाव लड़ना चाहते हैं तो उन्होंने भोपाल से सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ने की इच्छा जताई थी, हालांकि बाद में उन्होंने बंगाल की व्यस्तताओं के कारण लोकसभा चुनाव लड़ने से ही इनकार कर दिया था।