JNU: भविष्य के विनाश की तैयारी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। पिछले 3 साल से अशांतिग्रस्त जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में हर दिन एक नया विवाद सामने आ रहा है। हद यह है कि इन विवादों में अंदर-बाहर के सारे लोग शामिल हो रहे है पर जिनका आधारभूत वक्तव्य आना चाहिए,वे कुलपति चुप्पी साधे हैं। बीते रविवार के हमले से जेएनयू के संघर्ष के अलग ही स्तर पर जाता दिख रहा है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत दिल्ली पुलिस भी गजब है पुलिस ने 3 साल पहले कन्हैया कुमार और दो अन्य को देशद्र्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया था। उस मामले में अभी तक आरोप पत्र दाखिल नहीं किया ह यह इस बात का प्रमाण है कि दिल्ली पुलिस जेएनयू प्रशासन के साथ मिलकर कैंपस के अंदर सभी लोकतांत्रिक मंचों को निशाना बना रही है। यह सब भविष्य के विनाश की योजना है।

इस शृंखला की ताज़ा शुरुआत कोशिश फीस वृद्धि की घोषणा थी, जिसके कारण परिसर के अंदर और बाहर, दोनों जगह बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। शुल्क वृद्धि के खिलाफ हुए आंदोलन के दौरान जेएनयू के विरोधियों ने यह कहकर आंदोलन को खारिज किया है कि जेएनयू छात्र सरकारी खैरात के आदी हैं, जबकि उनमें से ज्यादातर छात्र ऊंचे शुल्क का भुगतान कर सकते हैं। एक ही संस्थान में अलग-अलग शुल्क लगाना या उन लोगों पर शुल्क लगाना, जो भुगतान कर सकते हैं, ठीक नहीं है। दूसरे तमाम निवेशों की तरह ही उच्च शिक्षा में निवेश करते समय भी छात्र व उनके परिवार लागत-लाभ की विवेचना करते हैं। जहां शुल्क और अन्य संबंधित खर्च- लागत स्पष्ट है, वहीं एक कुलीन विश्वविद्यालय में अध्ययन के फायदे बहुत हद तक होते हैं। आर्थिक और सांस्कृतिक अभिजात वर्ग और उनके बच्चे यह सब जानते हैं और जाहिर है, वे इन लाभों को उठाने में गैर-अभिजात वर्ग की तुलना में बेहतर स्थिति में होते हैं। गैर-अभिजात वर्ग के पास सूचनाओं की कमी होती है और वे हमेशा सुरक्षा की तलाश में रहते हैं।

गैर-अभिजात वर्ग के अभिभावक आम तौर पर चाहते हैं कि उनके बच्चे एमए या पीएचडी की बजाय स्कूल शिक्षक, या बैंक अधिकारी बन जाएं। कुलीन संस्थानों में फीस यदि काफी अधिक हो जाए, तो गैर-अभिजात वर्ग इन संस्थानों को तरजीह नहीं देगा। कम धन वाले विकल्पों के लिए समझौता करने की प्रवृत्ति कई गुना बढ़ जाएगी। यही सबसे बड़ा कारण है कि कुलीन विश्वविद्यालयों में अलग-अलग शुल्क संरचना का विरोध किया जाना चाहिए। कम शुल्क वाला संसाधन संपन्न सार्वजनिक विश्वविद्यालय भी जरूरी है। ऐसे संस्थान गैर-अभिजात वर्ग के छात्रों को बहुत विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आए छात्रों के साथ रहने और प्रतिस्पर्धा करने का मौका देते हैं। इस प्रक्रिया में दोनों तरह के छात्र एक-दूसरे से सीखते हैं।

देश की वर्तमान संरचना के मुताबिक जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान देश के संभ्रांत स्थान हैं, लेकिन ये देश में सामाजिक अभिजात वर्ग की अगली पीढ़ी में समानता को बढ़ावा देने के सबसे बडे़ सूत्रधार भी हैं। लोकतंत्र में गहराई लाने और न्यायप्रियता को मजबूत बनाने के लिए ये आवश्यक हैं। अगर यह सब कुछ राजकोषीय बचत में से कुछ सौ करोड़ रुपये खर्च करके भी हासिल हो जाए, तो कतई बुरा नहीं है। यहां यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि जेएनयू में प्रस्तावित फीस वृद्धि कर दी जाए, तब भी इसका खर्च नहीं निकाला जा सकता। यदि इस विश्वविद्यालय का खर्च फीस से ही निकालना है, तो फीस की मात्रा लाखों रुपये में चली जाएगी।

वैसे जेएनयू छात्रों की हरेक बात और मांग से हमेशा सहमत नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर वे लोकतांत्रिक और अहिंसक ढंग से अपनी मांग रखते हैं, तो उन्हें अपनी बातें कहने का पूरा अधिकार होना चाहिए। रविवार को जेएनयू छात्रों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया गया है, वह इस बात का प्रमाण है कि हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं, जहां शिक्षण संस्थानों में वैचारिक मतभेदों को पाशविक बल से कुचल दिया जाएगा। एक ऐसा समाज, जिसके विश्वविद्यालयों के खिलाफ हिंसा होती है, केवल अपने भविष्य के विनाश के लिए तैयार होता है।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!