मरीजों के हाथों में लटकता रिपोर्ट्स का पॉलिपैक | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। देश के किसी भी नामी बेनामी अस्पताल में चले जाईये, मरीज खुद या उसके रिश्तेदार हाथों में एक पॉलिपैक और उसमें मरीज की विभिन्न जाँच की रिपोर्ट दिखाई देंगी | “डिजिटल इण्डिया” में यह दृश्य समझ के बाहर है, जबकि देश में अब शायद ही कोई डाक्टर शेष हो जिसके टेबल पर लेपटॉप या कमरे में डेस्क टॉप मौजूद नहीं हो। वैसे तो सारे निजी अस्पताल और अनेक सरकारी सन्गठन अपने मातहत डाक्टरों को यह सुविधा उपलब्ध कराते हैं और अब कम्प्यूटर कोई दुर्लभ यंत्र भी नहीं रहा गया है जो किसी चिकित्सक की जेब पर बोझ हो. कई दवा कम्पनी लेपटोप की कीमत से ज्यादा की सुविधा बतौर उपहार डाक्टरों को देती ही है। फिर ये पालिपेक में रिपोर्ट क्यों ढोई जाती है, एक सवाल है जो मरीज से ज्यादा देश की सेहत से जुड़ा है। इसके पीछे देश और विदेश का बाज़ार है।

आज जीवन के हर क्षेत्र में डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है. हमारे देश में, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा समुचित स्वास्थ्य सेवा की पहुंच से दूर है, इस तकनीक के माध्यम से इसके विस्तार की व्यापक संभावना है. इस संबंध में सबसे पहले रोगियों के रिकॉर्ड को संग्रहित करना जरूरी है। अभी यहाँ वहां के आंकड़े इस व्यवस्था के अभाव में देशी –विदेशी दवा कम्पनियों को बेचने में “चिकित्सा माफिया” कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। मरीज या उसके रिश्तेदार हाथ में मौजूद पालिपेक को गोपनीय और निरापद मानने के भ्रम में रहते हैं। जिस खूबसूरत, चिकने कागज को वह संभाले हुए है उसकी दस गुनी कीमत चिकित्सा माफिया वसूल कर चुका है।

यदि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड किसी एक सर्वर पर किसी एक प्राधिकारी की निगहबानी में मरीज और उसके डाक्टर के बीच हो और उसका पासवर्ड मरीज के पास हो तो दृश्य बदल सकता है | एक रोगी तमाम रिपोर्टों और दस्तावेजों को ढोने की परेशानी से बच सकता है और डॉक्टरों को भी इलाज के लिए सलाह देने में सहूलियत रहेगी, डाक्टर चाहे कहीं बड़े शहर या अस्पताल में कार्यरत हों, मरीज अपने पासवर्ड के आधार पर वही रिपोर्ट उपलब्ध करा सकेगा |. केरल भारत का एकमात्र राज्य बन गया है, जहां ढाई करोड़ से अधिक लोगों का ऐसा रिकॉर्ड बन चुका है और वे किसी भी सरकारी अस्पताल में बिना कोई कागज के जा सकते हैं| इस तरह के प्रयास हर राज्य में होने चाहिए. पिछले साल प्रस्तावित नेशनल डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट में भी स्वास्थ्य डेटा के संग्रहण और प्रबंधन का प्रावधान है|

नीति आयोग ने भी उत्कृष्ट स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने के लिए एक रिपोर्ट तैयार की है| यह संतोष की बात है कि स्वास्थ्य सेवा के जानकारों द्वारा और विभिन्न अस्पतालों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा के महत्व को समझा जा रहा है, लेकिन रोगियों से जुड़ी सभी जरूरी जानकारियों को डिजिटल तरीके से जमा करने का चलन अभी बहुत ही सीमित है| इसमें डाक्टरों की रूचि कम होने का कारण विबिन्न जाँच केन्द्रों से आने वाले अघोषित लाभ भी है | कई रोगों के अच्छे चिकित्सकों की संख्या भी हमारे देश कम है |इससे विदेश में सम्पर्क कर निदान एवं हल फ़ौरन पूछा जा सकता है |

यह बहाना हो सकता है कि छोटे अस्पतालों में संसाधनों की कमी भी है|इस अभाव को दूर करने में तकनीक की मदद ली जा जानी चाहिए| देश के 75 प्रतिशत से ज्यादा इलाज करानेवाले और 60 प्रतिशत से ज्यादा भर्ती होनेवाले मरीज निजी अस्पतालों में ही भेज जाते हैं| 

जैसा कि नीति आयोग की रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है, डिजिटल स्वास्थ्य सेवा के लिए ठोस और निरापद तंत्र बनाना होगा.| इसमें सेवा के साथ वित्तीय पहलुओं का भी एकीकरण होना चाहिए. बीते कुछ सालों से स्वास्थ्य व स्वच्छता के लिए अनेक पहलकदमी हुई है| अब डिजिटल के मद में भी और निवेश किया जाना चाहिए ताकि विभिन्न योजनाओं की उपलब्धियों को स्थायी व प्रभावी बनाया जा सके| टेलीमेडिसिन, रोबोटिक्स और डिजिटल विश्लेषण का दायरा बढ़ता जा रहा है| ऐसे में तकनीक के द्वारा न केवल देश के भीतर, बल्कि विदेशी विशेषज्ञों की सेवाएं ली जा सकती हैं| इसी तरह से कहीं दूर बैठा कोई सर्जन डिजिटल स्क्रीनों से स्थानीय सर्जन को निर्देशित कर सकता है| इससे अभी मरीज को लूटते चिकित्सा माफिया पर नियंत्रण लग सकेगा |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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