नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत याचिकाओं के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया है। हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता जिला न्यायालय हाई कोर्ट कहीं पर भी अपनी याचिका दाखिल करने के लिए स्वतंत्र है। यह जरूरी नहीं है कि हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने से पहले उसे जिला कोर्ट में याचिका दाखिल करनी होगी और वहां से खारिज होने के बाद ही उसे हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने का अधिकार प्राप्त होगा।
याचिकाकर्ता का अधिकार है वह जहां चाहे अग्रिम जमानत याचिका दाखिल करें
कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट और सत्र न्यायालय दोनों को CRPC की धारा 438 में बराबर अधिकार हैं। आरोपियों को दोनों में से किसी भी न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए सीधे अर्जी दाखिल करने का अधिकार है। यह निर्णय न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने विनोद कुमार की जमानत अर्जी को खारिज करते हुए दिया है।
अग्रिम जमानत का प्रावधान क्यों किया गया
कोर्ट ने कहा कि प्रदेश में अग्रिम जमानत का प्रावधान संविधान में प्रदत्त वैयक्तिक स्वतंत्रता एवं अनावश्यक उत्पीड़न की गारंटी के तहत लागू किया गया है। यह निराधार आरोपों पर उत्पीड़न से बचने के लिए है। अर्जी पर वरिष्ठ अधिवक्ता डीएस मिश्र, इमरान उल्लाह और राज्य सरकार की तरफ से अपर शासकीय अधिवक्ता आईपी श्रीवास्तव व विकास सहाय ने पक्ष रखा।
याची की अग्रिम जमानत अर्जी सत्र न्यायालय ने खारिज कर दी थी। हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत मंजूर करने का ठोस आधार न पाए जाने पर अर्जी खारिज कर दी। साथ ही कहा कि अग्रिम जमानत संबंधित न्यायालय से आरोपी को सम्मन जारी किए जाने तक प्रभावी रहेगी। हाईकोर्ट ने कहा कि अदालत सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत दाखिल रिपोर्ट पर संज्ञान लेकर आरोपी को सम्मन जारी करती है। आरोपी चाहे तो नियमित जमानत ले सकता है लेकिन सत्र न्यायालय में अर्जी खारिज होने पर ही हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत अर्जी दाखिल की जा सकती है, यह सही नहीं है। कुछ मामलों में कोर्ट ने कहा था कि पहले अधीनस्थ अदालत जाएं। वहां अर्जी खारिज होने के बाद हाईकोर्ट आएं।