भोपाल गैस त्रासदी: हाँ ! हम हर साल मर्सिया गाते हैं | EDITORIAL by Rakesh Dubey

भोपाल। कल अर्थात दो दिसम्बर और तीन दिसम्बर की आधी रात को गैस त्रासदी को 35 बरस बीत जायेंगे। उस रात जिन के परिजन, मित्र, रिश्तेदार इस त्रासदी की भेंट चढ गये वे तो शोक संतप्त है ही पर गैस के प्रभाव में आने के बाद जो उस दिन बच गये वे ज्यादा दुखी हैं। बीमारी ठीक होने का नाम नहीं लेती, मुआवजा वसूलने का अधिकार सरकार के पास है, गैस पीड़ितों के इलाज़ के नाम पर बनाये गये अस्पताल डाक्टरों की कमी के कारण दम तोड़ रहे हैं। प्रदेश के दोनों बड़े राजनीतिक दलों के बड़े नाम, अपने हित साध कर चुप हैं। उस रात उभरे संघर्ष सन्गठन और मोर्चे आपसी संघर्ष की धींगामस्ती में लगे हैं। एक दूसरे को नीचा दिखने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। 

हर साल की तरह सेंट्रल लायब्रेरी के मैदान में मजिलस-ए- मातम होगा, मर्सिये पढ़े जायेंगे, सरकार हमेशा की तरह ख्वाब-ए-सुखन दिखाएगी और गैस पीड़ित अगले साल तक अपनी मौत का इंतजार करेंगे, क्योंकि मुआवजा जैसी चीज तो भारत सरकार की तिजोरी में हैं। उस त्रासदी से पीड़ित हुए लोग आज भी क्षुब्ध हताश और निराश है, सब अपने दुखों के साथ खुद लड़ रहे हैं। इनके अधिकारों की लड़ार्ड लड़ने का जिम्मा लेने वाली केंद्र सरकार चुप है। दुःख इस बात का है की इस लड़ाई के नाम पर अपनी नेतागिरी चमकाकर, पार्षद, महापौर, विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री सिर्फ अनमने मन से श्रधान्जलि देकर एक और बरसी मना लेते हैं। गैस पीड़ित माँ आज भी बीमार बच्चों को जन्म दे रही हैं। 

केंद्र और मध्य प्रदेश सरकार यूनियन कार्बाइड और उसके मूल संगठन डाउ केमिकल के मालिक के साथ सांठगांठ कर गैस पीड़ितों को गुमराह करती आ रही हैं। 1984 में हुई दुनिया की इस सबसे बड़ी त्रासदी का असर वर्तमान पीढ़ी पर भी दिख रहा है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के अधीन संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन एनवायरमेंटल हेलथ ने एक शोध में यह पाया था कि जहरीली गैस का दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ा। इसके कारण बच्चों में जन्मजात बीमारियां हो रही हैं। यह भी आरोप है कि आईसीएमआर की रिपोर्ट सरकार ने प्रकाशित ही नहीं होने दी, रिपोर्ट को दबा लिया गया। सवाल यह है कि ऐसा क्यों? तत्समय की कांग्रेस सरकार और वर्तमान केंद्र के सामने क्या गैस पीडतों को राहत से बड़ा कौनसा मुद्दा था और हैं ? अंतर्राष्ट्रीय दबाव तो यहाँ तक है गैस पीड़ितों के लिए संघर्ष करने वाले अब्दुल जब्बार के हाल ही में हुए निधन तक पर राजनीति हुई। 

एक सन्गठन का दावा है की उसे आरटीआई से मिले दस्तावेजों के मुताबिक मुख्य शोधकर्ता डॉ. रूमा गलगलेकर ने कहा है कि गैस पीड़ित माताओं के 1048 बच्चों में से 9 प्रतिशत में जन्मजात विकृतियां पाई गईं। 48 लाख की लागत से यह अध्ययन जनवरी 2016 से जून 2017 के बीच का बताया जा रहा है। वैसे दिसंबर 2014 से लेकर जनवरी 2017 तक तीन साइंटिफिक एडवाइजरी कमेटी (एसएसी) की बैठकों की जानकारी सरकारी नुमाइंदे बताते जरुर हैं, पर फैसले क्या हुए कोई नहीं जानता। एक अन्य सन्गठन ने उसके पास 1994-95 के दस्तावेजहोने का दावा किया है ये दस्तावेज बताते हैं कि गैस पीड़ितों के 70 हजार बच्चों की जांच हुई थी। जिनमे से 2435 बच्चों में दिल की जन्मजात विकृतियां पाई गईं हैं। दस्तावेज बताते हैं कि इनमें से सिर्फ 18 बच्चों को प्रदेश सरकार से मदद मिली, बाकी बच्चों का क्या हुआ? आईसीएमआर और प्रदेश सरकार को इन सवालों का जवाब देना चाहिए। सरकारें जव्बाब कहाँ देती है ?

मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार के मुख्यमंत्री जब केंद्र में पर्यावरण विभाग के मंत्री थे तब उन्होंने गैस पीड़ितों से जो वायदे किये थे उस पर अब कुछ करें तो यह गैस पीड़ितों की मदद होगी। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप से दोस्ती का दम भरते हैं, तो भगौड़े यूका प्रबन्धन को अदालत के सामने हाजिर कराएँ। यह सब न कर सकें, तो दोनों मिलकर उस पैसे को गैस पीड़ितों में बंटवा दे जो खजाने में जमा है।

उस रात जो दुनिया से चले गये उन्हें नमन, जो कष्ट में हैं, उनके लिए प्रार्थना और केवल मर्सिये गाने वालों के लिए लानत।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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