नई दिल्ली। राजकोषीय घाटे की जवाबदेही एक ऐसा प्रश्न है। जिसका उत्तर सीधा साधा नहीं है। कभी लगता है इस सम्बन्ध में बने कानून को विदा कर दिया जाए क्योंकि इससे फायदा कम, नुकसान ज्यादा हो रहा है। वर्ष 2007-08 को छोड़ दिया जाए तो इस कानून के तहत तय राजकोषीय घाटे का लक्ष्य कभी हासिल नहीं हो सका है। राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत के बराबर रखने का लक्ष्य लगातार टाला जाता रहा या उसे स्थगित करना पड़ा है।
समस्या में इसलिए भी इजाफा हुआ क्योंकि जब वित्त मंत्री इस लक्ष्य के आसपास जाने में भी नाकाम रहे तो उन्होंने हिसाब में छेड़छाड़ की और पूरा राजकोषीय बोझ सरकारी क्षेत्र की लाचार कंपनियों पर डाल दिया। सरकारी आंकड़ों में आ रही कमी को पूरा करने के लिए इन कंपनियों से एक से अधिक तरीके से धन वसूली की गई। एक समय अत्यंत अमीर रही तेल विपणन कंपनियों के पास अब बहुत कम नकदी बची होने की यह भी एक वजह है। वैसे राजकोषीय जवाबदेही कानून के तहत लक्ष्य की प्राप्ति दर्शाने के अन्य तरीकों में बिल भुगतान न करना भी शामिल है।
ध्यान रहे कि वित्त मंत्री ने हाल ही में कहा कि छोटे और मझोले उपक्रमों का बकाया भुगतान तत्काल किया जाना चाहिए। उन्होंने अन्य उपक्रमों का जिक्र नहीं किया जबकि उनकी राशि भी बकाया है। इसके अलावा राजस्व के आंकड़े हासिल करने के दबाव में काम कर रहे कर अधिकारी भी साल के आखिरी महीने में कंपनियों पर दबाव बनाते हैं कि वे अतिरिक्त कर चुकाएं। उनसे वादा किया जाता है कि अगले वर्ष की शुरुआत में ही उनकी राशि रिफंड कर दी जाएगी। ये तमाम तरीके अपनाने के बावजूद घाटे के आंकड़े लक्ष्य से कमजोर बने रहते हैं। अगर किसी को वास्तविक तस्वीर पर संदेह हो तो उसे जानना चाहिए कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने वित्त आयोग से क्या कहा था। उसने कहा था कि वर्ष 2017-18 में केंद्र का घाटा 3.46 प्रतिशत नहीं था बल्कि यह इससे कहीं अधिक 5.85 प्रतिशत था।
सही मायने में वित्त मंत्रियों को ऐसे तोड़-मरोड़ के लिए दबाव में क्यों डाला जाता है कि वे करीब 6 प्रतिशत के घाटे को 3.5 प्रतिशत के आसपास दर्शाने को मजबूर हो जाते हैं? उन्हें खुलकर सच्चाई क्यों नहीं बताने दी जाती ताकि देश के सामने वास्तविक तस्वीर आ सके? राजकोषीय घाटे को घटाकर बचाने से सरकार में शामिल प्रमुख लोगों को यह प्रोत्साहन मिलता है कि वे और अधिक खर्च कर सकें जबकि हकीकत में इसकी गुंजाइश नहीं होती। अगर सही आंकड़े पेश किए जाएंगे और चेतावनी साफ नजर आ रही होगी तो राजकोषीय जवाबदेही को लेकर समझदारी बढ़ेगी। कुछ और नहीं तो निजी क्षेत्र के अर्थशास्त्री, रेटिंग एजेंसियां और ऐसे लोग जो आज घाटे को लेकर सरकारी राय दोहराते हैं, उन सभी का सामना एक अलग सच से होगा। ऐसे में राजकोषीय सुधार का दबाव उत्पन्न होगा।
केवल राजकोषीय जवाबदेही कानून से संबंधित नुस्खा काम नहीं आएगा क्योंकि आंकड़ों से छेड़छाड़ तो इस कानून के बनने के पहले से होता आया है। कानून को समाप्त करने के साथ-साथ अन्य बदलाव भी करने होंगे। नकदी लेखा की मौजूदा पुरानी व्यवस्था समाप्त करनी होगी। अधिकांश देश इसे त्याग चुके हैं। नकदी लेखा में सरकार के व्यय खाते का इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के लिए बुनियादी कंपनियों द्वारा सड़क, पुल आदि के निर्माण का भुगतान करना। अधिकांश कंपनियां अपने बही खातों में कर्जदारों के बकाये का इस्तेमाल करती हैं। सरकार ऐसा नहीं करती और वह नकद लेखा के जरिये बच निकलती है। दूसरा, सरकारी क्षेत्र के लेखा का व्यापक अंकेक्षण होना चाहिए। इससे वह सारा व्यय सामने आ जाएगा जो अभी सरकार अपने संस्थानों मसलन खाद्य निगम आदि पर थोपती है। जिस खाद्य सब्सिडी बिल की भरपाई बजट से होनी थी उसे निगम ने अल्प बचत फंडों से उधारी लेकर निपटाया।
यदि इन बदलावों के माध्यम से विश्वसनीय बजटिंग नहीं होती है तो राजकोषीय घाटे को तीन फीसदी के स्तर पर रखने का कोई फायदा नहीं। यह आंकड़ा यूरोप का अनुकरण है जबकि भारत का आर्थिक संदर्भ यूरोप से एकदम अलग है। यह बात भरोसेमंद लगती है। तेज आर्थिक वृद्धि दर वाली भारतीय व्यवस्था उच्च घाटे वाले वृहद आर्थिक संकेतकों से निपट सकती है। जब तक घाटे की सच्चाई सबके सामने नहीं होगी तब तक वास्तविक आंकड़ों की दुनिया में ऐसे सवालों का जवाब मिलना आसान नहीं होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।