जिस देश में बचपन कुपोषित हो.....! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। आज भी देश में कोई ऐसा राज्य नहीं कहा जा सकता जो अपने को कुपोषण मुक्त होने का दावा करे | वस्तुत: देश के हर राज्य में घटते-बढ़ते आंकड़े यह तस्वीर बनाते हैं कि हमारे आकलन में कहीं गडबडी है या योजनायें सुचारू रूप से नहीं चल रही हैं | देश में आज भी पांच साल से कम आयु के 68 प्रतिशत बच्चों की मौत कुपोषण से हो रही है। 

ताज़ा आंकड़े सरकार देना नहीं चाहती या छिपाना चाहती है| दोनों ही स्थिति में जो है उससे बेहतर होने की गुंजाइश बनी है | यह धारणा यूँ ही नहीं बनी है | सरकार द्वारा कुपोषण दूर करने के भागीरथ प्रयास का प्रचार और उपलब्ध आकंडे कहीं मेल नहीं खाते | बमुश्किल इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की एक रिपोर्ट में मिली | जिसमें यह जानकारी दी गई है। जिसमें कहा गया है कि कुपोषण से होने वाली मौत में दो-तिहाई की कमी आई है।पर आंकड़े 1990 से 2017 तक के ही उपलब्ध है | ऐसी रिपोर्ट कभी भी पूरा दृश्य उपस्थित नहीं करती |

अन्य स्रोतों का दावा है कि प्राय: सभी राज्यों में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। कुपोषण की वजह से कई बीमारियों का खतरा बना हुआ है। कम वजन वाले बच्चों में करीब 47 प्रतिशत का मानसिक व शारीरिक विकास मंद गति से हो रहा है। कुपोषण का सीधा संबंध गरीबी  से है। गरीब तबके के लिए रोज किसी तरह पेट भर लेना ही बड़ी बात है, पोषण युक्त भोजन उसकी पहुंच से अभी भी काफी दूर है। अब भी 30 प्रतिशत गरीब प्रति दिन निर्धारित 2155 किलो कैलरी की तुलना में केवल 1811 किलो कैलरी का भोजन ही कर पाते हैं। यह असमानता बच्चों में अधिक है। चूंकि निर्धन महिलाओं को उचित आहार नहीं मिल पाता, खासकर गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती।

निर्धन महिलाओं में प्राय: खून की कमी रहती है। इस तरह उनके बच्चे कमजोर पैदा होते हैं। इन्हें बड़े होने पर भी समुचित भोजन नहीं मिल पाता। इस तरह कुपोषण पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है। सरकार ने गरीबों के लिए जो योजनाएं चलाई हैं, उनका उद्देश्य भी गरीबों का पेट भरना भरने तक  ही सीमित है।कभी –कभी यह भी दूभर हो जाता है | ज्यादातर राज्यों में लोक वितरण प्रणाली [पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम ] के तहत केवल चावल या गेहूं दिया जाता है, जिससे खाद्य सुरक्षा जरूर सुनिश्चित हुई है, लेकिन पोषण की समस्या दूर नहीं हो सकी। वैसे पोषण को लेकर जो योजनाएं शुरू हुई हैं लेकिन उन पर खर्च होने वाली राशि अब भी बेहद कम है। इस बेहद कम राशि में भी भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है |

छोटे बच्चों पर केंद्रित मुख्य योजना है समेकित बाल विकास सेवा, जिसका उद्देश्य 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को पूरक पोषाहार, स्वास्थ्य सुविधा और स्कूल पूर्व शिक्षा उपलब्ध कराना है। चूंकि बच्चों की जरूरतें अपनी मां से अलग पूरी नहीं हो सकतीं इसीलिए कार्यक्रम में महिलाओं को भी सम्मिलित किया गया है। कार्यक्रम को अमल में लाने के लिए आंगनवाड़ियों का एक नेटवर्क तैयार किया गया है। करीब 1000 की जनसंख्या (लगभग 200 परिवार) पर एक आंगनवाड़ी होती है। लेकिन अन्य योजनाओं की तरह इसमें भी भ्रष्टाचार का घुन लगा हुआ है।

आए दिन देश के अलग-अलग इलाकों से इसमें घोटालों की खबरें आती रहती हैं। कई जगहों पर तो आंगनवाड़ियां हैं ही नहीं सब कुछ कागज पर चल रहा  हैं। बच्चों में बांटे जाने वाले खाद्य पदार्थ की खरीद में भी अनियमितता की शिकायत मिलती है। इस योजना की सख्त निगरानी की जरूरत है। बच्चों के अलावा भी सारे निर्धनों को कैसे पोषण युक्त आहार मिले, इस पर सोचने की जरूरत है। भूख पर पाई गई लगभग जीत को अब एक नये   अजेंडे पर  केन्द्रित  कर पौष्टिकता की ओर ले जाना होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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